Tuesday 20 August 2013

सूरदास पद



चरन कमल बंदौ हरि राई / सूरदास
चरन कमल बंदौ हरि राई।
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै, आंधर कों सब कछु दरसाई॥
बहिरो सुनै, मूक पुनि बोलै, रंक चले सिर छत्र धराई।
सूरदास स्वामी करुनामय, बार-बार बंदौं तेहि पाई॥

भावार्थ :-- जिस पर श्रीहरि की कृपा हो जाती है, उसके लिए असंभव भी संभव हो जाता है। लूला-लंगड़ा मनुष्य पर्वत को भी लांघ जाता है। अंधे को गुप्त और प्रकट सबकुछ देखने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। बहरा सुनने लगता है। गूंगा बोलने लगता है कंगाल राज-छत्र धारण कर लेता हे। ऐसे करूणामय प्रभु की पद-वन्दना कौन अभागा न करेगा।
शब्दार्थ :-राई= राजा। पंगु = लंगड़ा। लघै =लांघ जाता है, पार कर जाता है। मूक =गूंगा। रंक =निर्धन, गरीब, कंगाल। छत्र धराई = राज-छत्र धारण करके। तेहि = तिनके। पाई =चरण।


अबिगत गति कछु कहति न आवै / सूरदास
अबिगत गति कछु कहति न आवै।
ज्यों गूंगो मीठे फल की रस अन्तर्गत ही भावै॥
परम स्वादु सबहीं जु निरन्तर अमित तोष उपजावै।
मन बानी कों अगम अगोचर सो जाने जो पावै॥
रूप रैख गुन जाति जुगति बिनु निरालंब मन चकृत धावै।
सब बिधि अगम बिचारहिं, तातों सूर सगुन लीला पद गावै॥
भावार्थ :- यहां अव्यक्तोपासना को देहाभिमानियों के लिए क्लिष्ट बताया है। निराकार निर्गुण ब्रह्म का चिंतन अनिर्वचनीय है। वह मन और वाणी का विषय नहीं। गूंगे को मिठाई खिला दी जाय और उससे उसका स्वाद पूछा जाय, तो वह कैसे बतला सकता है, वह रसानंद तो उसका अन्तर ही जानता है। अव्यक्त ब्रह्म का न रूप है, न रेख, न गुण है, न जाति। मन वहां स्थिर ही नहीं हो सकता। सब प्रकार से वह अगम्य है, अतः सूरदास सगुण ब्रह्म श्रीकृष्ण की लीलाओं का ही गायन करना ठीक समझते हैं।

शब्दार्थ :- अबिगत = अव्यक्त, अज्ञेय जो जाना न जा सके। गति = बात। अन्तर्गत = हृदय, अन्तरात्मा। भावै = रुचिकर प्रतीत होता है। अमित =अपार। तोष =सन्तोष, आनन्द। अगोचर = इन्द्रियजन्य ज्ञान से परे। गुन =गुण, सत्व, रज और तमो गुण से आशय है। निरालंब = बिना अवलंब या सहारे के। सगुन =सगुण, दिव्यगुण संयुक्त साकार ब्रह्म श्रीकृष्ण।


प्रभु, मेरे औगुन न विचारौ / सूरदास
प्रभु, मेरे औगुन न विचारौ।
धरि जिय लाज सरन आये की रबि-सुत-त्रास निबारौ॥
जो गिरिपति मसि धोरि उदधि में लै सुरतरू निज हाथ।
ममकृत दोष लिखे बसुधा भरि तऊ नहीं मिति नाथ॥
कपटी कुटिल कुचालि कुदरसन, अपराधी, मतिहीन।
तुमहिं समान और नहिं दूजो जाहिं भजौं ह्वै दीन॥
जोग जग्य जप तप नहिं कीण्हौं, बेद बिमल नहिं भाख्यौं।
अति रस लुब्ध स्वान जूठनि ज्यों अनतै ही मन राख्यौ॥
जिहिं जिहिं जोनि फिरौं संकट बस, तिहिं तिहिं यहै कमायो।
काम क्रोध मद लोभ ग्रसित है विषै परम विष खायो॥
अखिल अनंत दयालु दयानिधि अघमोचन सुखरासि।
भजन प्रताप नाहिंने जान्यौं, बंध्यौ काल की फांसि॥
तुम सर्वग्य सबै बिधि समरथ, असरन सरन मुरारि।
मोह समुद्र सूर बूड़त है, लीजै भुजा पसारि॥
भावार्थ :- जीव के अपराधों का अन्त नहीं। अपराधों की तरफ देखकर यदि न्याय किया गया, तब तो उद्धार पाने की कोई आशा नहीं। `शरणागत' को भगवान तार देते हैं, इस न्याय पर ही सूर का उद्धार भवसागर से होना चाहिए।

शब्दार्थ ;- औगुन =अवगुण, दोष। सरन आए की = शरण में आने की। रविसुत = सूर्य पुत्र यमराज। त्रास = भय। निवारो =दूर कर दो। मसि =स्याही। सुरतरु =कल्पवृक्ष, यहां कल्पवृक्ष का लेखनी से आशय है। मिति =अन्त। परम बिष =तेज जहर। अखिल =सर्वरूप। अघमोचन = पापों से छुड़ानेवाला। मोह = अज्ञान, संसार से तात्पर्य है। पसारि = बढ़ाकर।

प्रभु, हौं सब पतितन कौ राजा / सूरदास
प्रभु, हौं सब पतितन कौ राजा।
परनिंदा मुख पूरि रह्यौ जग, यह निसान नित बाजा॥
तृस्ना देसरु सुभट मनोरथ, इंद्रिय खड्ग हमारे।
मंत्री काम कुमत दैबे कों, क्रोध रहत प्रतिहारे॥
गज अहंकार चढ्यौ दिगविजयी, लोभ छ्त्र धरि सीस॥
फौज असत संगति की मेरी, ऐसो हौं मैं ईस।
मोह मदै बंदी गुन गावत , मागध दोष अपार॥
सूर, पाप कौ गढ दृढ़ कीने, मुहकम लाय किंवार॥
भावार्थ :- यहां बड़े पापी की राजा से तुलना की गई है। परनिन्दा ही राजमहल के द्वार पर नौबत का बजना है। तृष्णा पतितेश का देश है। अनेक मनोरथ योद्धा हैं। इन्द्रियां तलवार का काम देती हैं।काम कुमंत्री है और क्रोध है द्वारपाल। अहंकार दिग्विजय कराने में साथी है। सिर पर लोभ का राज छत्र है। दुष्टों की संगति सेना है। ऐसे नरेश की विरुदावली का गान मोह मदादि कर रहे हैं। भक्तिवाद में दीनता ही दीनबंधु की शरण में ले जाती है।
शब्दार्थ :- पूरि रह्यौ =भर रहा है। निसान = नगाड़ा। रु =अरु और। सुभट =योद्धा। कुमंत = कुमंत्र, बुरी सलाह। प्रतिहार = द्वारपाल। असत =झूठ,दुष्ट ईस =राजा। मदै = मद ही। मागध =मगध देश के भाट, जो वंश विरुदावली बखानते हैं। गढ़ =किला। मुहकम = मजबूत। किंवार = किवाड़, फाटक।

अब कै माधव, मोहिं उधारि / सूरदास
अब कै माधव, मोहिं उधारि।
मगन हौं भव अम्बुनिधि में, कृपासिन्धु मुरारि॥
नीर अति गंभीर माया, लोभ लहरि तरंग।
लियें जात अगाध जल में गहे ग्राह अनंग॥
मीन इन्द्रिय अतिहि काटति, मोट अघ सिर भार।
पग न इत उत धरन पावत, उरझि मोह सिबार॥
काम क्रोध समेत तृष्ना, पवन अति झकझोर।
नाहिं चितवत देत तियसुत नाम-नौका ओर॥
थक्यौ बीच बेहाल बिह्वल, सुनहु करुनामूल।
स्याम, भुज गहि काढ़ि डारहु, सूर ब्रज के कूल॥
भावार्थ :- संसार-सागर में माया अगाध जल है , लोभ की लहरें हैं, काम वासना का मगर है, इन्द्रियां मछलियां हैं और इस जीवन के सिर पर पापों की गठरी रखी हुई है।इस समुद्र में मोह सवार है। काम-क्रोधादि की वायु झकझोर रही है। तब एक हरि नाम की नौका ही पार लगा सकती है, पर-स्त्री तथा पुत्र का माया-मोह उधर देखने ही नहीं देता। भगवान ही हाथ पकड़कर पार लगा सकते हैं।
शब्दार्थ :- अब कैं =अबकी बार ,इस जन्म में। उधारि = उद्धार करो। मगन =मग्न, डूबा हुआ। भव = संसार। अंबुनिधि =समुद्र। ग्राह =मगर। अनंग = काम वासना। मोट =गठरी। सिवार = शैवाल, पानी के अन्दर उगनेवाली घास जिसमें मनुष्य प्रायः फंस जाता है। कूल =किनारा।

मोहिं प्रभु, तुमसों होड़ परी / सूरदास
मोहिं प्रभु, तुमसों होड़ परी।
ना जानौं करिहौ जु कहा तुम, नागर नवल हरी॥
पतित समूहनि उद्धरिबै कों तुम अब जक पकरी।
मैं तो राजिवनैननि दुरि गयो पाप पहार दरी॥
एक अधार साधु संगति कौ, रचि पचि के संचरी।
भई न सोचि सोचि जिय राखी, अपनी धरनि धरी॥
मेरी मुकति बिचारत हौ प्रभु, पूंछत पहर घरी।
स्रम तैं तुम्हें पसीना ऐहैं, कत यह जकनि करी॥
सूरदास बिनती कहा बिनवै, दोषहिं देह भरी।
अपनो बिरद संभारहुगै तब, यामें सब निनुरी॥
भावार्थ :- `तुम सों होड़ परी' तुम्हारा नाम `पतितोद्धारक' है, पर मुझे इसका विश्वास नहीं। आज जांचने आया हूं, कि तुम कहां तक पतितों का उद्धार करते हो। तुमने उद्धार करने का हठ पकड़ रखा है, तो मैंने पाप करने का सत्याग्रह ठान रखा है। इस बाजी में देखना है कौन जीतता है। `मैं तो राजिव....दरी' तुम्हारे कमलदल जैसे नेत्रों की दृष्टि बचाकर मैं पाप-पहाड़ की गुफा में छिपकर बैठ गया हूं।
शब्दार्थ :- होड़ = बाजी। नागर = चतुर। जक =हठ। दरी =कन्दरा,गुफा। दुर गयो = छिप गया। अपनी धरनी = अपनी शक्ति भर। जकनि करी =हठ किया। निनुरी = निर्णय हो जाएगा।

अब हों नाच्यौ बहुत गोपाल / सूरदास
अब हों नाच्यौ बहुत गोपाल।
काम क्रोध कौ पहिरि चोलना, कंठ विषय की माल॥
महामोह के नूपुर बाजत, निन्दा सब्द रसाल।
भरम भर्‌यौ मन भयौ पखावज, चलत कुसंगति चाल॥
तृसना नाद करति घट अन्तर, नानाविध दै ताल।
माया कौ कटि फैंटा बांध्यो, लोभ तिलक दियो भाल॥
कोटिक कला काछि दिखराई, जल थल सुधि नहिं काल।
सूरदास की सबै अविद्या, दूरि करौ नंदलाल॥
भावार्थ :- संसार के प्रवृति मार्ग पर भटकते-भटकते जीव अन्त में प्रभु से कहता है, तुम्हारी आज्ञा से बहुत नाच मैंने नाच लिया। अब इस प्रवृति से मुझे छुटकारा दे दो, मेरा सारा अज्ञान दूर कर दो। वह नृत्य कैसा? काम-क्रोध के वस्त्र पहने। विषय की माला पहनी। अज्ञान के घुंघरू बजे। परनिन्दा का मधुर गान गाया। भ्रमभरे मन ने मृदंग का काम दिया। तृष्णा ने स्वर भरा और ताल तद्रुप दिये। माया का फेंटा कस लिया था। माथे पर लोभ का तिलक लगा लिया था। तुम्हें रिझाने के लिए न जाने कितने स्वांग रचे। कहां-कहां नाचना पड़ा, किस-किस योनि में चक्कर लगाना पड़ा। न तो स्थान का स्मरण है, न समय का। किसी तरह अब तो रीझ जाओ, नंदनंदन।

शब्दार्थ :- चोलना = नाचने के समय का घेरदार पहनावा। पखावज =मृदंग। विषय = कुवासना। फैंटा =कमरबंद। अविद्या =अज्ञान।

कब तुम मोसो पतित उधारो / सूरदास
कब तुम मोसो पतित उधारो।
पतितनि में विख्यात पतित हौं पावन नाम तिहारो॥
बड़े पतित पासंगहु नाहीं, अजमिल कौन बिचारो।
भाजै नरक नाम सुनि मेरो, जमनि दियो हठि तारो॥
छुद्र पतित तुम तारि रमापति, जिय जु करौ जनि गारो।
सूर, पतित कों ठौर कहूं नहिं, है हरि नाम सहारो॥

भावार्थ :- जो पुण्य करता है, वह स्वर्ग पद पाता है। मैंने कोई पुण्य नहीं किया, इससे स्वर्ग जाने का तो मेरा अधिकार है नहीं। अब रह गया नरक। मगर नरक भी मेरे महान पापों को देखकर डर गया है। वहां भी प्रवेश नहीं। अब कहां जाऊं। अब तो, नाथ, तुम्हारे चरणों का ही अवलम्ब है, सो वहीं थोड़ी-सी जगह कृपाकर दे दो।
शब्दार्थ :- मोसो =मेरे समान। पावन =पवित्र करने वाला। पासंगहुं =पासंग भी। अजमिल = भक्त अजामिल, जो लड़के का `नारायण' नाम लेने से यम पाश से मुक्त हो गया था। बिचारो = बेचारा। भाजै =भागता है। जमनि =यमदूतों ने। हठी =जबरदस्ती से। तारो =ताला। गारो =बड़ाई, अभिमान। ठौर जगह।

अपन जान मैं बहुत करी / सूरदास
आछो गात अकारथ गार्‌यो।
करी न प्रीति कमललोचन सों, जनम जनम ज्यों हार्‌यो॥
निसदिन विषय बिलासिन बिलसत फूटि गईं तुअ चार्‌यो।
अब लाग्यो पछितान पाय दुख दीन दई कौ मार्‌यो॥
कामी कृपन कुचील कुदरसन, को न कृपा करि तार्‌यो।
तातें कहत दयालु देव पुनि, काहै सूर बिसार्‌यो॥
भावार्थ :- `जनम....हार्‌यो' = प्रत्येक जन्म में व्यर्थ ही सुन्दर शरीर नष्ट कर दिया। नर शरीर पाकर भी हरि का भजन करते न बना। जिस शरीर को `मोक्ष का द्वार' कहा है, उसे भी विषय-भोगों में नष्ट कर दिया। पर भक्त को प्रभु की कृपा का अब भी भरोसा है। हरि की कृपा ने बड़े-बड़े कामी, कृपण, मलिन और कुरूपों को भव-सागर से तार दिया। लेकिन सूर को तो इस नियम में भी अपवाद प्रतीत होता है। न जाने, उस दयालु ने सूर को क्यों बिसरा दिया !

शब्दार्थ :- आछो = अच्छा, सुन्दर। गात =शरीर। अकारथ = व्यर्थ। गार्‌यो =बरबाद कर दिया। ज्यो =जीव। तुअ =तेरी। चार्‌यो = चारों नेत्र, दो बाहर के नेत्र और दो भीतर के ज्ञान नेत्र। दई =दुर्दैव, दुर्भाग्य। कृपन =लोभी, घृणित। कुचील =मैला, गंदा। कुदरसन = कुरूप।

आछो गात अकारथ गार्‌यो / सूरदास
आछो गात अकारथ गार्‌यो।
करी न प्रीति कमललोचन सों, जनम जनम ज्यों हार्‌यो॥
निसदिन विषय बिलासिन बिलसत फूटि गईं तुअ चार्‌यो।
अब लाग्यो पछितान पाय दुख दीन दई कौ मार्‌यो॥
कामी कृपन कुचील कुदरसन, को न कृपा करि तार्‌यो।
तातें कहत दयालु देव पुनि, काहै सूर बिसार्‌यो॥
भाव :- `जनम....हार्‌यो' = प्रत्येक जन्म में व्यर्थ ही सुन्दर शरीर नष्ट कर दिया। नर शरीर पाकर भी हरि का भजन करते न बना। जिस शरीर को `मोक्ष का द्वार' कहा है, उसे भी विषय-भोगों में नष्ट कर दिया। पर भक्त को प्रभु की कृपा का अब भी भरोसा है। हरि की कृपा ने बड़े-बड़े कामी, कृपण, मलिन और कुरूपों को भव-सागर से तार दिया। लेकिन सूर को तो इस नियम में भी अपवाद प्रतीत होता है। न जाने, उस दयालु ने सूर को क्यों बिसरा दिया !

शब्दार्थ :- आछो = अच्छा, सुन्दर। गात =शरीर। अकारथ = व्यर्थ। गार्‌यो =बरबाद कर दिया। ज्यो =जीव। तुअ =तेरी। चार्‌यो = चारों नेत्र, दो बाहर के नेत्र और दो भीतर के ज्ञान नेत्र। दई =दुर्दैव, दुर्भाग्य। कृपन =लोभी, घृणित। कुचील =मैला, गंदा। कुदरसन = कुरूप।

सोइ रसना जो हरिगुन गावै / सूरदास
सोइ रसना जो हरिगुन गावै।
नैननि की छवि यहै चतुरता जो मुकुंद मकरंदहिं धावै॥
निर्मल चित तौ सोई सांचो कृष्ण बिना जिहिं और न भावै।
स्रवननि की जु यहै अधिकाई, सुनि हरि कथा सुधारस प्यावै॥
कर तैई जै स्यामहिं सेवैं, चरननि चलि बृन्दावन जावै।
सूरदास, जै यै बलि ताको, जो हरिजू सों प्रीति बढ़ावै॥
भावार्थ :- `हरि-परायण' होने में ही हरेक इंद्रिय की सार्थकता है, यही इस पद का सार है `नैननि की.....धावे' = नेत्रों को अप्रकट रूप से यहां भ्रमर बनाया गया है। उसी नैन रूपी मधुकर के सफल जीवन हैं, जो मुकुंदरूपी मकरंद अर्थात कृष्ण-छवि पराग का पान करने के लिए दौड़ते हैं।

शब्दार्थ :- रसना =जीभ, वाणी। छवि =शोभा। मकरंद =पराग। न भावै = अच्छा नहीं लगता है। अधिकाई = बड़ाई, सार्थकता।

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