Wednesday 21 August 2013

हरि नाम कौ आधार


माधवजू, जो जन तैं बिगरै / सूरदास
माधवजू, जो जन तैं बिगरै।
तउ कृपाल करुनामय केसव, प्रभु नहिं जीय धर॥
जैसें जननि जठर अन्तरगत, सुत अपराध करै।
तोऊ जतन करै अरु पोषे, निकसैं अंक भरै॥
जद्यपि मलय बृच्छ जड़ काटै, कर कुठार पकरै।
तऊ सुभाव सुगंध सुशीतल, रिपु तन ताप हरै॥
धर विधंसि नल करत किरसि हल बारि बांज बिधरै।
सहि सनमुख तउ सीत उष्ण कों सोई सफल करै॥
रसना द्विज दलि दुखित होति बहु, तउ रिस कहा करै।
छमि सब लोभ जु छांड़ि छवौ रस लै समीप संचरै॥
करुना करन दयाल दयानिधि निज भय दीन डर।
इहिं कलिकाल व्याल मुख ग्रासित सूर सरन उबरे॥
भावार्थ :- जीव के प्रति भगवान की असीम करुणाशीलता है। कितना ही कोई अपराध करे, करुणामय हरि उसे क्षमा ही करते हैं। बच्चा कितने ही अपराध करे, माता तो उसे छाती से लगा कर प्यार ही करेगी। मलयागिर कुठाराघात करने वाले के शरीर को भी शीतलता देगा। धरती को हल से जोतते हैं, उसे विदीर्ण करते हैं, फिर भी वह दुःखों को झेलकर सुन्दर फल देती है। जीभ की भी यही बात है। सदा दांतों तले दबी रहती है, पर कभी दांतों पर क्रोध नहीं करती। छहों रसों का स्वाद उनको चखाती है। ऐसे ही ईश्वर अपनों के अज्ञानावस्था में किये अपराधों को क्षमा कर देता है।

शब्दार्थ :- तऊ =तो भी। नहिं जीय धरै =मन में नहीं लाते। जठर अन्तर्गत = पेट के भीतर, गर्भ में। अंक =गोद। रिपु =शत्र, काटने से तात्पर्य है। धर =धरा, पृथ्वी। नल =नाला। करषि =जोत कर। द्विज =दांत।


कीजै प्रभु अपने बिरद की लाज / सूरदास
कीजै प्रभु अपने बिरद की लाज।
महापतित कबहूं नहिं आयौ, नैकु तिहारे काज॥
माया सबल धाम धन बनिता, बांध्यौ हौं इहिं साज।
देखत सुनत सबै जानत हौं, तऊ न आयौं बाज॥
कहियत पतित बहुत तुम तारे स्रवननि सुनी आवाज।
दई न जाति खेवट उतराई, चाहत चढ्यौ जहाज॥
लीजै पार उतारि सूर कौं महाराज ब्रजराज।
नई न करन कहत, प्रभु तुम हौ सदा गरीब निवाज॥

भावार्थ :- इस पद में भक्त ने भगवान के आगे अपना हृदय खोलकर रख दिया है। कहता है तुम्हें अपने विरद की लाज रखनी हो, तो तार ही दो। पूछो, तो मैं आज तक तुम्हारे काम नहीं आया। इस प्रबल माया अकोन, कामिनी-कांचन के बंधन में बहुत बुरी तरह से जकड़ा हूं। देखता हूं, सुनता हूं और सब जानता हूं, पर जो नहीं करना चाहिए, वही करता चला जाता हूं। पर यह विश्वास है, कि तुम पतितोद्धारक हो। यद्दपि मैं पार उतराई नहीं देना चाहता हूं, फिर भी नाव पर चढ़ना चाहता हूं। तुमसे कोई नई बात करने को नहीं कहता। तुम तो सदा से पतितों को पार उतारते आये हो। तुम गरीब-निवाज हो, तो मुझ गरीब को भी पार लगा दो। `नेकु तिहारे काज,' `तऊ न आयौं बाज,' `दई न जाति....जहाज,' `नई न करन कहत' आदि की बड़ी सुन्दर और मुहावरे-दार भाषा है। अहंकार को भगवान की अगाध करुणा में डुबो देने की ओर इस पद में संकेत किया गया है।

शब्दार्थ :-बिरद =बड़ाई। न आयौं बाज = छोड़ा नहीं। खेवट = नाव खेने वाला। उतराई =पार उतारने की मजदूरी। नई = कोई नई बात।


सरन गये को को न उबार्‌यो / सूरदास
सरन गये को को न उबार्‌यो।
जब जब भीर परीं संतति पै, चक्र सुदरसन तहां संभार्‌यौ।
महाप्रसाद भयौ अंबरीष कों, दुरवासा को क्रोध निवार्‌यो॥
ग्वालिन हैत धर्‌यौ गोवर्धन, प्रगट इन्द्र कौ गर्व प्रहार्‌यौ॥
कृपा करी प्रहलाद भक्त पै, खम्भ फारि हिरनाकुस मार्‌यौ।
नरहरि रूप धर्‌यौ करुनाकर, छिनक माहिं उर नखनि बिदार्‌यौ।
ग्राह-ग्रसित गज कों जल बूड़त, नाम लेत वाकौ दुख टार्‌यौ॥
सूर स्याम बिनु और करै को, रंगभूमि में कंस पछार्‌यौ॥

भावार्थ :-जो भी भगवान की शरण में गया, उसने अभय पद पाया। यद्यपि भगवान् का न कोई मित्र है, न कोई शत्रु, तो भी सत्य और असत्य की मर्यादा की रक्षा के लिए, अजन्मा होते हुए भी वह `रक्षक' और `भक्षक' के रूप धारण करते हैं। प्रतिज्ञा भी यही है।

शब्दार्थ :- उबार्‌यौ =रक्षा की। भीर =संकट। संभार्‌यौ = हाथ में लिया। अंबरीष = एक हरि भक्त राजा। दुरवासा = दुर्वासा नामके एक महान क्रोधी ऋषि। प्रहार्‌यौ =नष्ट किया। नरहरि = नृसिंह। नखनि =नाखूनों से। बिदार्‌यौ =चीर फाड़ डाला। रंगभूमि = सभा स्थल।


जौलौ सत्य स्वरूप न सूझत / सूरदास
जौलौ सत्य स्वरूप न सूझत।
तौलौ मनु मनि कंठ बिसारैं, फिरतु सकल बन बूझत॥
अपनो ही मुख मलिन मंदमति, देखत दरपन माहीं।
ता कालिमा मेटिबै कारन, पचतु पखारतु छाहिं॥
तेल तूल पावक पुट भरि धरि, बनै न दिया प्रकासत।
कहत बनाय दीप की बातैं, कैसे कैं तम नासत॥
सूरदास, जब यह मति आई, वै दिन गये अलेखे।
कह जानै दिनकर की महिमा, अंध नयन बिनु देखे॥

भावार्थ :- `सत्य स्वरूप' अपनी आत्मा का वास्तविक रूप। असत् शरीर को ही अविद्यावश `आत्मा' मान लिया गया है। वह तो सनातन सत्य है। `तौलों.....बूझत' मणि-माला गले में ही पहने है , पर भ्रमवश इधर-उधर खोजता फिरता है। आत्मा तो अन्तर में ही है, पर उसे हम जगह-जगह खोजते फिरते हैं। `अपनी...छाहिं' मुंह में तो अपना काला है, पर वह मूर्ख शीशे में कालिमा समझ रहा है , उस शीशे को बार-बार साफ कर रहा है। असद्ज्ञान के साधन भी असत् ही होते हैं। जब तक जीवात्मा को स्वरूप का यथार्थ ज्ञान नहीं हुआ, उसे `सत्' `असत्' का विवेक प्राप्त नहीं हो सकता।

शब्दार्थ :- बूझत फिरतु =पूछता फिरता है। पचतु =परेशान होता है। पखारतु = धोता है, साफ करता है। तूल =रुई। पुट = दीपक से तात्पर्य है। अलख =वृथा।


तुम्हारी भक्ति हमारे प्रान / सूरदास
तुम्हारी भक्ति हमारे प्रान।
छूटि गये कैसे जन जीवै, ज्यौं प्रानी बिनु प्रान॥
जैसे नाद-मगन बन सारंग, बधै बधिक तनु बान।
ज्यौं चितवै ससि ओर चकोरी, देखत हीं सुख मान॥
जैसे कमल होत परिफुल्लत, देखत प्रियतम भान।
दूरदास, प्रभु हरिगुन त्योंही सुनियत नितप्रति कान॥

भावार्थ :- यह अनन्यता का वर्णन है। यह `तन्मयता' से प्राप्त होती है। बिना प्राण के जैसे `प्राणी' शब्द निरर्थक है, वैसे ही भगवद्भक्ति-रहित जीवन व्यर्थ है। मृग का राग-प्रेम, चकोर का चन्द्र-प्रेम और कमल का सूर्य प्रेम प्रसिद्ध है। जीव को इसी प्रकार भगवत्प्रेम में तन्मय हो जाना चाहिए।

शब्दार्थ :- जन =दास। नाद =शब्द, राग। सारंग =मृग। भान= भानु,सूर्य।

धोखैं ही धोखैं डहकायौ / सूरदास
धोखैं ही धोखैं डहकायौ।
समुझी न परी विषय रस गीध्यौ, हरि हीरा घर मांझ गंवायौं॥
क्यौं कुरंग जल देखि अवनि कौ, प्यास न गई, दसौं दिसि धायौ।
जनम-जनम बहु करम किये हैं, तिन में आपुन आपु बंधायौ॥
ज्यौं सुक सैमर -फल आसा लगि निसिबासर हठि चित्त लगायौ।
रीतो पर्‌यौ जबै फल चाख्यौ, उड़ि गयो तूल, तांबरो आयौ॥
ज्यौं कपि डोरि बांधि बाजीगर कन-कन कों चौहटें नचायौ।
सूरदास, भगवंत भजन बिनु काल ब्याल पै आपु खवायौ॥

भावार्थ :- क्षणिक विषय-रसों में आनंद मानकर यह जीव आत्मानन्द से विमुख रह गया। धोखे में ठगाया गया। `हरि-हीरा' को अंतर में खोकर जीवनभर विषय-रस में भूला रहा। कालरूपी सर्प खा गया। `ज्यों सुक...आयौ.' तोता सेमर के फल में रात-दिन आशा लगाये बैठा रहा, कि कब पकता है। अंत में पका जानकर चोंच मारी तो अंदर से केवल रुई निकली। इससे किसकी भूख बुझी है? विषय-सुखों का परिणाम सारहीन ही है। अंत में, जब काल-ब्याल के मुख में पड़ गया, तब पछताने से क्या होगा ?

शब्दार्थ :- डहकायौ =ठगा गया। गीध्यौ = लालच में पड़ गया। कुरंग = मृग। जल देखि अवनि कौ = ग्रीष्म में धरती से उठती हुई गर्म हवा को जल समझ लिया, यही मृगतृष्णा है। सेमर =शाल्मलि वृक्ष। तूल =रूई। तांवरो =मूर्छा।चौंहटे =चौहटा,चौक।


कहावत ऐसे दानी दानि / सूरदास
कहावत ऐसे दानी दानि।
चारि पदारथ दिये सुदामहिं, अरु गुरु को सुत आनि॥
रावन के दस मस्तक छेद, सर हति सारंगपानि।
लंका राज बिभीषन दीनों पूरबली पहिचानि।
मित्र सुदामा कियो अचानक प्रीति पुरातन जानि।
सूरदास सों कहा निठुरई, नैननि हूं की हानि॥
भावार्थ :- `कहावत ...दानि' ऐसे दानी आज`दानी' के नाम से प्रसिद्ध हैं; राम और कृष्ण को लोग बड़ा दानी कहते हैं। पर उन्होंने कोई निःस्वार्थ दान तो दिया नहीं। अकारण दान करते, तो दानी अवश्य कहे जाते। फिर भी वे आज `दानी' के नाम से पुकारे जाते हैं। `चारि...सुदामहिं,' सुदामा और श्रीकृष्ण उज्जैन में गुरु सांदीपन के गुरुकुल में पढ़ते थे। सुदामा ने वहां कभी कृष्ण को कोई कष्ट नहीं होने दिया। यदि द्वारिकाधीश ने तब उसे माला-माल कर दिया होता, तो कौन-सी बड़ी बात थी। प्रत्युपकार ही होना था। विभीषण ने घर के सारे भेद राम को बतला दिये थे, उन्होंने उसे लंका का राज्य सौंप दिया। फिर भी राम और कृष्ण आदर्श दानी कहे जाते हैं। कुछ हो, सूर के साथ तो निठुराई का ही व्यवहार किया, नेत्रों से भी हीन कर दिया।

शब्दार्थ :- छेदे =काट डाले। सारंगपानि = धनुर्धारी राम। पूरबली = पुरानी, पहले की। निठुराई =निर्दयता, निठुराईं।

मेरो मन अनत कहां सचु पावै / सूरदास
मेरो मन अनत कहां सुख पावै।
जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी पुनि जहाज पै आवै॥
कमलनैन कौ छांड़ि महातम और देव को ध्यावै।
परमगंग कों छांड़ि पियासो दुर्मति कूप खनावै॥
जिन मधुकर अंबुज-रस चाख्यौ, क्यों करील-फल खावै।
सूरदास, प्रभु कामधेनु तजि छेरी कौन दुहावै॥

भावार्थ :- यहां भक्त की भगवान् के प्रति अनन्यता की ऊंची अवस्था दिखाई गई है। जीवात्मा परमात्मा की अंश-स्वरूपा है। उसका विश्रान्ति-स्थल परमात्माही है , अन्यत्र उसे सच्ची सुख-शान्ति मिलने की नहीं। प्रभु को छोड़कर जो इधर-उधर सुख खोजता है, वह मूढ़ है। कमल-रसास्वादी भ्रमर भला करील का कड़वा फल चखेगा ?कामधेनु छोड़कर बकरी को कौन मूर्ख दुहेगा ?

शब्दार्थ :- अनत =अन्यत्र। सचु =सुख, शान्ति। कमलनैन = श्रीकृष्ण। दुर्मति= मूर्ख खनावै = खोदता है। करील -फल = टेंट। छेरी =बकरी।


प्रभु, मेरे औगुन चित न धरौ / सूरदास
है हरि नाम कौ आधार।
और इहिं कलिकाल नाहिंन रह्यौ बिधि-ब्यौहार॥
नारदादि सुकादि संकर कियौ यहै विचार।
सकल स्रुति दधि मथत पायौ इतौई घृत-सार॥
दसहुं दिसि गुन कर्म रोक्यौ मीन कों ज्यों जार।
सूर, हरि कौ भजन करतहिं गयौ मिटि भव-भार॥
भावार्थ :- `हरि-भजन' ही मुक्ति का सर्वोत्कृष्ट और तत्काल फलदायक साधन है। इसलिए `सब तज, हरि भज' ही मुख्य है।
शब्दार्थ :- आधार = भरोसा। बिधि =वेदोक्त कर्म-कांड से आशय है। ब्यौहार =क्रिया, साधन। सुक =शुकदेव। इतौई =इतना ही। गुन =गुण-सत्व, रज और तमोगुण। जार =जाल। भवभार =जन्म मरण के चक्र से अभिप्राय है।


है हरि नाम कौ आधार / सूरदास
है हरि नाम कौ आधार।
और इहिं कलिकाल नाहिंन रह्यौ बिधि-ब्यौहार॥
नारदादि सुकादि संकर कियौ यहै विचार।
सकल स्रुति दधि मथत पायौ इतौई घृत-सार॥
दसहुं दिसि गुन कर्म रोक्यौ मीन कों ज्यों जार।
सूर, हरि कौ भजन करतहिं गयौ मिटि भव-भार॥

भावार्थ :- `हरि-भजन' ही मुक्ति का सर्वोत्कृष्ट और तत्काल फलदायक साधन है। इसलिए `सब तज, हरि भज' ही मुख्य है।

शब्दार्थ :- आधार = भरोसा। बिधि =वेदोक्त कर्म-कांड से आशय है। ब्यौहार =क्रिया, साधन। सुक =शुकदेव। इतौई =इतना ही। गुन =गुण-सत्व, रज और तमोगुण। जार =जाल। भवभार =जन्म मरण के चक्र से अभिप्राय है।

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