दिल्ली
से 128 किमी की दूरी पर तथा मथुरा से
60 किमी की दूरी पर स्थित कोसी कला स्थान
पर सूर्यपुत्र भगवान शनिदेव जी का एक अति प्राचीन मंदिर स्थापित है। इसके आसपास ही
नंदगांव, बरसाना एवं श्री बांके बिहारी मंदिर स्थित है।
कोकिलावन धाम का यह सुन्दर परिसर लगभग
20 एकड में फैला है। इसमें श्री शनि देव
मंदिर, श्री देव बिहारी मंदिर, श्री गोकुलेश्वर महादेव मंदिर , श्री
गिरिराज मंदिर, श्री बाबा बनखंडी मंदिर प्रमुख हैं। यहां दो प्राचीन
सरोवर और गोऊ शाला भी हैं।
कहते
हैं जो यहां आकर शनि महाराज के दर्शन करते हैं उन्हें शनि की दशा, साढ़ेसाती
और ढैय्या में शनि नहीं सताते। प्रत्येक शनिवार को यहां पर आने वाले श्रद्धालु शनि
भगवान की 3 किमी की परिक्रमा करते हैं। शनिश्चरी अमावस्या को
यहां पर विशाल मेले का आयोजन होता है।
शनि महाराज भगवान श्री
कृष्ण के भक्त माने जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि कृष्ण के दर्शनों के लिए शनि
महाराज ने कठोर तपस्या की। शनि की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान श्री कृष्ण ने इसी
वन में कोयल के रुप में शनि महाराज को दर्शन दिया। इसलिए यह स्थान आज कोकिला वन के
नाम से जाना जाता है। आइए श्री कृष्ण और शनिदेव के प्रसंग को विस्तार से जानते है।
माता यशोदा ने नहीं करने दिया शनि को कृष्ण दर्शन:
जब श्री
कृष्ण ने जन्म लिया तो सभी देवी-देवता उनके दर्शन करने नंदगांव पधारे। कृष्णभक्त
शनिदेव भी देवताओं संग श्रीकृष्ण के दर्शन करने नंदगांव पहुंचे। परंतु मां यशोदा
ने उन्हें नंदलाल के दर्शन करने से मना कर दिया क्योंकि मां यशोदा को डर था कि शनि
देव कि वक्र दृष्टि कहीं कान्हा पर न पड़ जाए। परंतु शनिदेव को यह अच्छा नहीं लगा
और वो निराश होकर नंदगांव के पास जंगल में आकर तपस्या करने लगे। शनिदेव का मानना
था कि पूर्णपरमेश्वर श्रीकृष्ण ने ही तो उन्हें न्यायाधीश बनाकर पापियों को दण्डित
करने का कार्य सोंपा है। तथा सज्जनों, सत-पुरुषों, भगवत भक्तों का शनिदेव सदैव कल्याण करते है।
श्री कृष्ण ने कोयल बन दिए शनिदेव को दर्शन
भगवान्
श्री कृष्ण शनि देव कि तपस्या से द्रवित हो गए और शनि देव के सामने कोयल के रूप
में प्रकट हो कर कहा – हे शनि देव आप निःसंदेह अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित
हो और आप के ही कारण पापियों – अत्याचारियों
– कुकर्मिओं का दमन होता है और परोक्ष
रूप से कर्म-परायण, सज्जनों, सत-पुरुषों, भगवत भक्तों का कल्याण होता है, आप धर्मं -परायण
प्राणियों के लिए ही तो कुकर्मिओं का दमन करके उन्हें भी कर्तव्य परायण बनाते हो, आप का
ह्रदय तो पिता कि तरह सभी कर्तव्यनिष्ठ प्राणियो के लिए द्रवित रहता है और उन्ही
की रक्षा के लिए आप एक सजग और बलवान पिता कि तरह सदैव उनके अनिष्ट स्वरूप दुष्टों
को दंड देते रहते हो। हे शनि देव !
मैं आप
से एक भेद खोलना चाहता हूँ ; कि यह बृज-क्षेत्र मुझे परम प्रिय है और मैं इस पवित्र भूमि को
सदैव आप जैसे सशक्त-रक्षक और पापिओं को दंड देने में सक्षम कर्तव्य-परायण शनि
देव कि क्षत्र-छाया में रखना चाहता हूँ ; इसलिए हे
शनि देव – आप मेरी इस इच्छा को सम्मान देते हुए इसी स्थान पर
सदैव निवास करो, क्योंकि मैं यहाँ कोयल के रूप में आप से मिला हूँ इसी
लिए आज से यह पवित्र स्थान “कोकिलावन” के नाम से विख्यात होगा। यहाँ कोयल के मधुर स्वर सदैव
गूंजते रहेंगे, आप मेरे इस बृज प्रदेश में आने वाले हर प्राणी पर नम्र
रहें साथ ही कोकिलावन-धाम में आने वाला आप के साथ – साथ मेरी
भी कृपा का पात्र होगा।
मंदिर का इतिहास :
गरूड़
पुराण में व नारद पुराण में कोकिला बिहारी जी का उल्लेख आता है । तो शनिमहाराज का
भी कोकिलावन में विराजना भगवान कृष्ण के समय से ही माना जाता है । बीच में कुछ समय
के लिए मंदिर जीर्ण-शीर्ण हो गया था करीब साढ़े तीन सौ वर्ष पूर्व में
राजस्थान में भरतपुर महाराज हुए थे उन्होंने भगवान की प्रेरणा से इस कोकिलावन में
जीर्ण-शीर्ण हुए मंदिर का अपने राजकोष से जीर्णोधार कराया । तब से लेकर आज तक
दिन पर दिन मंदिर का विकास होता चला आ रहा है ।
एक बार कैलाश पर्वत में हर जगह
उत्साह और आनंद का माहौल था व इस उत्साह का कारण था माता पार्वती के पुत्र गणेश का जन्म. महादेव शिव और पर्वती को उनके पुत्र गणेश
के जन्म की बधाई देने सभी देवता, ऋषि-मुनि, सूर्य-चन्द्रादि , सिद्धगण व पर्वत आदि कैलाश
पर्वत पधारे हुए थे. शनिदेव भी इन सब के साथ कैलाश पर्वत
आये थे परन्तु वे इन सबके पीछे खड़े थे. उनका मुखमंडल अति नम्र था तथा उन्होंने अपनी आँखे नीचे जमीन की ओर कर रखी
थी व भगवान श्री कृष्ण के
भक्ति में लीन थे. वे तप, तेजस्वी, धधकती अग्नि शिखा के समान तेजवान, सुन्दर श्यामवर्णी, श्रेष्ठ
थे और पीताम्बर धारण किये थे.
सर्वप्रथम शनि देव ने कैलाश पर्वत पहुंचकर
ब्र्ह्मा, विष्णु , महेश, ऋषिगन और सूर्यादि को प्रणाम किया तथा इसके बाद वे उस स्थान पर पहुंचे जहाँ
माता पार्वती अपने पुत्र गणेश के साथ उनके सखियो से घिरी हुई थी. माता पार्वती के पास पहुंच शनि देव ने माता
पार्वती को नमन किया तथा उनसे आशीर्वाद गर्हण किया. परन्तु शनि देव ने शिशु गणेश की ओर एक बार अपनी नजरे घुमाने का प्रयास तक नहीं किया. शनि देव को नीचे की ओर मुंह करें देख माता पार्वती
ने उनसे पूछा इस खुसी के अवसर पर आपने अपना मुंह क्यों झुका रखा है, आखिर तुम मेरे बालक की ओर क्यों नहीं देख रहे ?
तब शनि देव ने कहा की हे माते ! सभी जन अपने कर्मो का फल भोगते है, कर्म चाहे जैसा भी हो परन्तु करोड़ो वर्षो कल्पो तक
क्षय नहीं होता. अपने कर्मो के अनुसार ही जीव
ब्र्ह्मा, सूर्य , देव आदि का स्थान पाता है तथा
अपने कर्मो के अनुसार ही वह मनुष्य, वृक्ष, जीव-जन्तु आदि के योनि में आता है. अपने कर्मो के कारण ही प्राणी नरक और स्वर्ग भोगता
है. कर्मो के कारण ही मनुष्य राजा
बनता और उसी के कारण वह दास बनता है. कर्म ही मनुष्य को धनी बनाता है और यही निर्धन.
आज में आपको यह रहस्य बताता हु
की क्यों मेरी दृष्टि नीचे रहती है. हे माते! मेरी बचपन से ही भगवान श्री कृष्ण के प्रति अत्यधिक श्रद्धा रही
है. में हर समय भगवान कृष्ण की ही
भक्ति में लगा रहता था.
विषय भोगो से
विरकत में हर समय उनकी तपस्या में लीन रहता था. जब में विवाह योग्य हुआ तो मेरे पिता ( सूर्यदेव ) ने मेरा विवाह चित्ररथ गन्धर्व की कन्या से कर दिया. वह तेजस्वनी सती साध्वी भी सदैव तपस्या में लीन
रहती थी. एक दिन वह ऋतू स्नान कर मेरे
समीप आई उस समय में भगवत चिंतन में लीन था. उस समय मुझे बाहरी ज्ञान बिल्कुल भी ज्ञात नहीं था. उस समय उस साध्वी ने अपना ऋतुकाल व्यर्थ जाता देख
मुझे श्राप दिया की आज से तुम्हारी दृष्टि सदैव नीचे ही रहेगी यदि तुमने किसी पर
अपनी दृष्टि डालने का भी प्रयास किया तो उसका अवश्य नाश होगा.
यही
कारण है माते की में सदैव अपनी दृष्टि नीचे किेए रहता हु, कहि मेरे कारण जीव हिंसा न हो जाये.और यही कारण है की में बालक गणेश पर
भी अपनी दृष्टि नहीं डाल सकता.
काशी-विश्वनाथ की स्थापना करी थी शनि देव
ने :-
स्कन्द
पुराण में काशी खण्ड में वृतांत आता है,
कि छाया सुत श्री शनिदेव ने अपने पिता
भगवान सूर्य देव से प्रश्न किया कि हे पिता!
मै ऐसा पद प्राप्त करना चाहता हूँ, जिसे आज
तक किसी ने प्राप्त नही किया, हे पिता ! आपके मंडल से मेरा मंडल सात गुना बडा हो, मुझे आपसे
अधिक सात गुना शक्ति प्राप्त हो, मेरे वेग का कोई सामना नही कर पाये, चाहे वह
देव, असुर, दानव, या सिद्ध साधक ही क्यों न हो। आपके लोक से मेरा लोक
सात गुना ऊंचा रहे। दूसरा वरदान मैं यह प्राप्त करना चाहता हूँ, कि मुझे
मेरे आराध्य देव भगवान श्रीकृष्ण के प्रत्यक्ष दर्शन हों, तथा मै
भक्ति ज्ञान और विज्ञान से पूर्ण हो सकुँ शनिदेव की यह बात सुन कर भगवान सूर्य
प्रसन्न तथा गदगद हुए, और कह, बेटा ! मै भी यही चाहता हूँ, के तू मेरे से सात गुना अधिक
शक्ति वाला हो। मै भी तेरे प्रभाव को सहन नही कर सकूं, इसके लिये
तुझे तप करना होगा, तप करने के लिये तू काशी चला जा, वहां जाकर
भगवान शंकर का घनघोर तप कर, और शिवलिंग की स्थापना कर, तथा भगवान
शंकर से मनवांछित फ़लों की प्राप्ति कर ले। शनि देव ने पिता की आज्ञानुसार वैसा ही
किया, और तप करने के बाद भगवान शंकर के वर्तमान में भी स्थित शिवलिंग की स्थापना
की, जो आज भी काशी-विश्वनाथ के नाम से जाना जाता है, और कर्म
के कारक शनि ने अपने मनोवांछित फ़लों की प्राप्ति भगवान शंकर से की, और ग्रहों
में सर्वोपरि पद प्राप्त किया।
मोक्ष देने वाला एक मात्र गृह है शनि
शनि
ग्रह के प्रति अनेक आखयान पुराणों में प्राप्त होते हैं। शनि को सूर्य पुत्र माना
जाता है। लेकिन साथ ही पितृ शत्रु भी। शनि ग्रह के सम्बन्ध मे अनेक भ्रान्तियां और
इस लिये उसे मारक, अशुभ और दुख कारक माना जाता है। पाश्चात्य ज्योतिषी भी
उसे दुख देने वाला मानते हैं। लेकिन शनि उतना अशुभ और मारक नही है, जितना उसे
माना जाता है। इसलिये वह शत्रु नही मित्र है। मोक्ष को देने वाला एक मात्र शनि
ग्रह ही है। सत्य तो यह ही है कि शनि प्रकृति में संतुलन पैदा करता है, और हर
प्राणी के साथ न्याय करता है। जो लोग अनुचित विषमता और अस्वाभाविक समता को आश्रय
देते हैं, शनि केवल उन्ही को प्रताडित करता है।
वैदूर्य
कांति रमल:, प्रजानां वाणातसी कुसुम वर्ण विभश्च शरत:।
अन्यापि
वर्ण भुव गच्छति तत्सवर्णाभि सूर्यात्मज:
अव्यतीति मुनि प्रवाद:॥
भावार्थ:-शनि ग्रह
वैदूर्यरत्न अथवा बाणफ़ूल या अलसी के फ़ूल जैसे निर्मल रंग से जब प्रकाशित होता है, तो उस समय
प्रजा के लिये शुभ फ़ल देता है यह अन्य वर्णों को प्रकाश देता है, तो उच्च
वर्णों को समाप्त करता है, ऐसा ऋषि महात्मा कहते हैं।
इस कारण शनि है पितृ शत्रु
धर्मग्रंथो
के अनुसार सूर्य की द्वितीय पत्नी के गर्भ से शनि देव का जन्म हुआ, जब शनि
देव छाया के गर्भ में थे तब छाया भगवन शंकर की भक्ति में इतनी ध्यान मग्न थी की
उसने अपने खाने पिने तक सुध नहीं थी जिसका प्रभाव उसके पुत्र पर पड़ा और उसका वर्ण
श्याम हो गया ! शनि के श्यामवर्ण को देखकर सूर्य ने अपनी पत्नी छाया
पर आरोप लगाया की शनि मेरा पुत्र नहीं हैं
! तभी से शनि अपने पिता से शत्रु भाव
रखता हैं ! शनि देव ने अपनी साधना तपस्या द्वारा शिवजी को प्रसन्न
कर अपने पिता सूर्य की भाँति शक्ति प्राप्त की और शिवजी ने शनि देव को वरदान
मांगने को कहा, तब शनि देव ने प्रार्थना की कि युगों युगों में मेरी
माता छाया की पराजय होती रही हैं, मेरे पिता पिता सूर्य द्वारा अनेक बार अपमानित व्
प्रताड़ित किया गया हैं ! अतः माता की इक्छा हैं कि मेरा पुत्र अपने पिता से
मेरे अपमान का बदला ले और उनसे भी ज्यादा शक्तिशाली बने ! तब भगवान
शंकर ने वरदान देते हुए कहा कि नवग्रहों में तुम्हारा सर्वश्रेष्ठ स्थान होगा ! मानव तो
क्या देवता भी तुम्हरे नाम से भयभीत रहेंगे
!
शनि के
सम्बन्ध मे हमे पुराणों में अनेक आख्यान मिलते हैं। माता के छल के कारण पिता ने
उसे शाप दिया। पिता अर्थात सूर्य ने कहा,”आप क्रूरतापूर्ण द्रिष्टि देखने वाले मंदगामी ग्रह हो
जाये”.
यह भी
आख्यान मिलता है कि शनि के प्रकोप से ही अपने राज्य को घोर दुर्भिक्ष से बचाने के
लिये राजा दशरथ उनसे मुकाबला करने पहुंचे तो उनका पुरुषार्थ देख कर शनि ने उनसे
वरदान मांगने के लिये कहा.राजा दशरथ ने विधिवतस्तुति कर उसे प्रसन्न किया। पद्म
पुराण में इस प्रसंग का सविस्तार वर्णन है।
ब्रह्मवैवर्त
पुराण में शनि ने जगत जननी पार्वती को बताया है कि मैं सौ जन्मो तक जातक की करनी
का फ़ल भुगतान करता हूँ। एक बार जब विष्णुप्रिया लक्ष्मी ने शनि से पूंछा कि तुम
क्यों जातकों को धन हानि करते हो, क्यों सभी तुम्हारे प्रभाव से प्रताडित रहते हैं, तो शनि
महाराज ने उत्तर दिया,”मातेश्वरी, उसमे मेरा कोई दोष नही है, परमपिता
परमात्मा ने मुझे तीनो लोकों का न्यायाधीश नियुक्त किया हुआ है, इसलिये जो
भी तीनो लोकों के अंदर अन्याय करता है, उसे दंड देना मेरा काम है”.
एक
आख्यान और मिलता है, कि किस प्रकार से ऋषि अगस्त ने जब शनि देव से
प्रार्थना की थी, तो उन्होने राक्षसों से उनको मुक्ति दिलवाई थी। जिस
किसी ने भी अन्याय किया, उनको ही उन्होने दंड दिया, चाहे वह
भगवान शिव की अर्धांगिनी सती रही हों, जिन्होने सीता का रूप रखने के बाद बाबा भोले नाथ से
झूठ बोलकर अपनी सफ़ाई दी और परिणाम में उनको अपने ही पिता की यज्ञ में हवन कुंड मे
जल कर मरने के लिये शनि देव ने विवश कर दिया,
अथवा राजा हरिश्चन्द्र रहे हों, जिनके दान
देने के अभिमान के कारण सप्तनीक बाजार मे बिकना पडा और,शमशान की
रखवाली तक करनी पडी, या राजा नल और दमयन्ती को ही ले लीजिये, जिनके
तुच्छ पापों की सजा के लिये उन्हे दर दर का होकर भटकना पडा, और भूनी
हुई मछलियां तक पानी मै तैर कर भाग गईं,
फ़िर साधारण मनुष्य के द्वारा जो भी मनसा, वाचा, कर्मणा, पाप कर
दिया जाता है वह चाहे जाने मे किया जाय या अन्जाने में, उसे
भुगतना तो पडेगा ही.
मत्स्य
पुराण में महात्मा शनि देव का शरीर इन्द्र कांति की नीलमणि जैसी है, वे गिद्ध
पर सवार है, हाथ मे धनुष बाण है एक हाथ से वर मुद्रा भी है, शनि देव
का विकराल रूपभयावना भी है। शनि पापियों के लिये हमेशा ही संहारक हैं। पश्चिम के
साहित्य मे भी अनेक आख्यान मिलते हैं, शनि देवके अनेक मन्दिर हैं, भारत में
भी शनि देव के अनेक मन्दिर हैं, जैसे शिंगणापुर,
वृंदावन के कोकिला वन, ग्वालियर
के शनिश्चराजी, दिल्ली तथा अनेक शहरों मे महाराज शनि के मन्दिर हैं।
श्री हनुमान जी की
पूजा करने से शनी देव के दण्ड सेबचा जा सकता है ।
पुराणों में प्रचलित एक कथा
के अनुसार, रामायण काल में एक समय शनि देव को अपने बल और पराक्रम पर घमंड हो गया
था। उस काल में भगवान हनुमान के बल और पराक्रम की कीर्ति चारों दिशाओं में फैली
हुई थी।
जब शनि देव को भगवान
हनुमान के संबंध में जानकारी प्राप्त हुई तो शनि देव भगवान हनुमान से युद्ध करने
के लिए निकल पड़े।
कहते हैं कि जब एक शांत स्थान
पर हनुमानजी अपने स्वामी श्रीराम की भक्ति में लीन बैठे थे, तभी वहां शनिदेव आ गए
और उन्होंने भगवान हनुमान को युद्ध के लिए ललकारा। परन्तु शनिदेव के क्रोध का कारण
हनुमानजी समझ चुके थे, इसलिए उन्होंने युद्ध को स्वीकारने की बजाय शनिदेव को
समझाने का प्रयास किया।
लेकिन शनिदेव थे कि मानने को
तैयार ही नहीं थे। अंत में भगवान हनुमान भी युद्ध के लिए तैयार हो गए। दोनों के
बीच घमासान युद्ध हुआ, जिसके अंत में परिणाम स्वरूप शनि देव की हार हुई।
कहा जाता है कि युद्ध के
दौरान हनुमानजी ने शनि देव पर ऐसे तीखे प्रहार किए जिस कारण शनि देव के शरीर पर
काफी घाव बन गए। वह पीड़ा उनसे सहन नहीं हो रही थी, इसलिए चिरंजीवी हनुमानजी ने
उनके शरीर पर तेल लगाकर उनकी पीड़ा को कम किया।
यही वह कारण है जिसके बाद से
शनिदेव को तेल चढ़ाने की परंपरा शुरू हुई। ऐसी मान्यता है कि शनिदेव पर जो भी
व्यक्ति तेल चढ़ाता है, उसके जीवन की समस्त परेशानियां दूर हो जाती हैं ।
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