Wednesday 31 August 2016

सबसे बड़ा पूण्य


एक राजा बहुत बड़ा प्रजापालक था, हमेशा प्रजा के हित में प्रयत्नशील रहता था. वह इतना कर्मठ था कि अपना सुख, ऐशो-आराम सब छोड़कर सारा समय जन-कल्याण में ही लगा देता था . यहाँ तक कि जो मोक्ष का साधन है अर्थात भगवत-भजन, उसके लिए भी वह समय नहीं निकाल पाता था.

एक सुबह राजा वन की तरफ भ्रमण करने के लिए जा रहा था कि उसे एक देव के दर्शन हुए. राजा ने देव को प्रणाम करते हुए उनका अभिनन्दन किया और देव के हाथों में एक लम्बी-चौड़ी पुस्तक देखकर उनसे पूछा- “ महाराज, आपके हाथ में यह क्या है?”
देव बोले- “राजन! यह हमारा बहीखाता है, जिसमे सभी भजन करने वालों के नाम हैं.”
राजा ने निराशायुक्त भाव से कहा- “कृपया देखिये तो इस किताब में कहीं मेरा नाम भी है या नहीं?”
देव महाराज किताब का एक-एक पृष्ठ उलटने लगे, परन्तु राजा का नाम कहीं भी नजर नहीं आया.

राजा ने देव को चिंतित देखकर कहा- “महाराज ! आप चिंतित ना हों , आपके ढूंढने में कोई भी कमी नहीं है. वास्तव में ये मेरा दुर्भाग्य है कि मैं भजन-कीर्तन के लिए समय नहीं निकाल पाता, और इसीलिए मेरा नाम यहाँ नहीं है.”
उस दिन राजा के मन में आत्म-ग्लानि-सी उत्पन्न हुई लेकिन इसके बावजूद उन्होंने इसे नजर-अंदाज कर दिया और पुनः परोपकार की भावना लिए दूसरों की सेवा करने में लग गए.
कुछ दिन बाद राजा फिर सुबह वन की तरफ टहलने के लिए निकले तो उन्हें वही देव महाराज के दर्शन हुए, इस बार भी उनके हाथ में एक पुस्तक थी. इस पुस्तक के रंग और आकार में बहुत भेद था, और यह पहली वाली से काफी छोटी भी थी.
राजा ने फिर उन्हें प्रणाम करते हुए पूछा- “महाराज ! आज कौन सा बहीखाता आपने हाथों में लिया हुआ है?”
देव ने कहा- “राजन! आज के बहीखाते में उन लोगों का नाम लिखा है जो ईश्वर को सबसे अधिक प्रिय हैं !”
राजा ने कहा- “कितने भाग्यशाली होंगे वे लोग ? निश्चित ही वे दिन रात भगवत-भजन में लीन रहते होंगे !! क्या इस पुस्तक में कोई मेरे राज्य का भी नागरिक है?
देव महाराज ने बहीखाता खोला, और ये क्या, पहले पन्ने पर पहला नाम राजा का ही था।
राजा ने आश्चर्य चकित होकर पूछा महाराज मेरा इसमे कैसे लिखा हुआ है,मैं तो मन्दिर भी कभी कभार ही जाता हूँ?
देव ने कहा राजन इसमे आश्चर्य की क्या बात है ? जो लोग निष्काम भाव होकर संसार की सेवा करते हैं ,जो लोग संसार के उपकार में अपना जीवन अर्पण करते हैं ,जो लोग मुक्ती का लोभ भी त्यागकर प्रभू के निर्बल सन्तानो की सेवा सहायता में अपना योगदान देते हैं उन त्यागी महापुरुषों का भजन स्वयं ईस्वर करता है ,ऐ राजन ! तू मत पछता की तू पूजा पाठ नहीं करता है , लोगों की सेवा कर तू असल में भगवान की ही पूजा करता है.
परोपकार और निःस्वार्थ लोकसेवा किसी भी उपासना और पूजन से बढ़कर है।
देव ने वेदों का उदाहरण देते हुए कहा
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छनम् समाः एवान्त्वाप नान्यतोअस्ति व कर्म लिप्यते नरे .."
अर्थात्-- कर्म करते हुए सौ वर्ष जीने की इच्छा करो तो कर्म बन्धन में लिप्त हो जाओगे , राजन! भगवान दीन दयालू है .उन्हें खुसामद नही भाती बल्कि आचरण भाता है..सच्ची भक्ती तो यही है की परोपकार करो ,दीन दुखियों का हित साधन करो ,अनाथ ,विधवा,किसान व निर्धन आज अत्याचारियों से सताए जाते हैं 
इनकी यथाशक्ति सहायता और सेवा करो यही परम भक्ती है...
राजा को आज देव के माध्यम से बहुत बड़ा ज्ञान मिल चूका था और अब राजा भी समझ गया कि परोपकार से बढ़कर कुछ भी नहीं और जो परोपकार करते हैं वही भगवान के सबसे प्रिय होते हैं ।
मित्रों जो ब्यक्ति निःस्वार्थ भाव से लोगों की सेवा करने के लिए आगे आते हैं ,परमात्मा हर समय उनके कल्याण के लिए यत्न करता है. हमारे पूर्वजों ने भी कहा है- "परोपकाराय
पुण्याय भवति" अर्थात दूसरों के लिए जीना दूसरों की सेवा को ही पूजा समझ कर कर्म करना ,परोपकार के लिए अपने जीवन को सार्थक बनाना ही सबसे बड़ा पूण्य है . और जब आप भी ऐसा करेंगे तो स्वतः ही आप भी उस ईस्वर के प्रिय भक्तों में सामिल हो जायेंगे।
🙏🏻 श्री राधे राधे🙏🏻

Thursday 25 August 2016

भगवान् श्री कृष्ण जी के 51 नाम और उन के अर्थ


*1 कृष्ण* : सब को अपनी ओर आकर्षित करने वाला.।
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*2 गिरिधर*: गिरी: पर्वत ,धर: धारण करने वाला। अर्थात गोवर्धन पर्वत को उठाने वाले।
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*3 मुरलीधर*: मुरली को धारण करने वाले।
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*4 पीताम्बर धारी*: पीत :पिला, अम्बर:वस्त्र। जिस ने पिले वस्त्रों को धारण किया हुआ है।
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*5 मधुसूदन:* मधु नामक दैत्य को मारने वाले।
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*6 यशोदा या देवकी नंदन*: यशोदा और देवकी को खुश करने वाला पुत्र।
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*7 गोपाल*: गौओं का या पृथ्वी का पालन करने वाला।
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*8 गोविन्द*: गौओं का रक्षक।
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*9 आनंद कंद:* आनंद की राशि देंने वाला।
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*10 कुञ्ज बिहारी*: कुंज नामक गली में विहार करने वाला।
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*11 चक्रधारी*: जिस ने सुदर्शन चक्र या ज्ञान चक्र या शक्ति चक्र को धारण किया हुआ है।
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*12 श्याम*: सांवले रंग वाला।
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*13 माधव:* माया के पति।
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*14 मुरारी:* मुर नामक दैत्य के शत्रु।
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*15 असुरारी*: असुरों के शत्रु।
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*16 बनवारी*: वनो में विहार करने वाले।
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*17 मुकुंद*: जिन के पास निधियाँ है।
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*18 योगीश्वर*: योगियों के ईश्वर या मालिक।
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*19 गोपेश* :गोपियों के मालिक।
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*20 हरि*: दुःखों का हरण करने वाले।
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*21 मदन:* सूंदर।
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*22 मनोहर:* मन का हरण करने वाले।
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*23 मोहन*: सम्मोहित करने वाले।
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*24 जगदीश*: जगत के मालिक।
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*25 पालनहार*: सब का पालन पोषण करने वाले।
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*26 कंसारी*: कंस के शत्रु।
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*27 रुख्मीनि वलभ*: रुक्मणी के पति ।
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*28 केशव*: केशी नाम दैत्य को मारने वाले. या पानी के उपर निवास करने वाले या जिन के बाल सुंदर है।
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*29 वासुदेव*:वसुदेव के पुत्र होने के कारन।
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*30 रणछोर*:युद्ध भूमि स भागने वाले।
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*31 गुड़ाकेश*: निद्रा को जितने वाले।
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*32 हृषिकेश*: इन्द्रियों को जितने वाले।
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*33 सारथी*: अर्जुन का रथ चलने के कारण।
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*35 पूर्ण परब्रह्म:* :देवताओ के भी मालिक।
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*36 देवेश*: देवों के भी ईश।
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*37 नाग नथिया*: कलियाँ नाग को मारने के कारण।
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*38 वृष्णिपति*: इस कुल में उतपन्न होने के कारण
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*39 यदुपति*:यादवों के मालिक।
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*40 यदुवंशी*: यदु वंश में अवतार धारण करने के कारण।
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*41 द्वारकाधीश*:द्वारका नगरी के मालिक।
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*42 नागर*:सुंदर।
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*43 छलिया*: छल करने वाले।
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*44 मथुरा गोकुल वासी*: इन स्थानों पर निवास करने के कारण।
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*45 रमण*: सदा अपने आनंद में लीन रहने वाले।
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*46 दामोदर*: पेट पर जिन के रस्सी बांध दी गयी थी। 
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*47 अघहारी*: पापों का हरण करने वाले।
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*48 सखा*: अर्जुन और सुदामा के साथ मित्रता निभाने के कारण।
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*49 रास रचिया*: रास रचाने के कारण।
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*50 अच्युत*: जिस के धाम से कोई वापिस नही आता है।
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*51 नन्द लाला*: नन्द के पुत्र होने के कारण।
🙏🌺 *।। जय श्री कृष्णा ।।* 🌺🙏

माखन चोर


दुर्योधन ने श्री कृष्ण की पूरी नारायणी सेना मांग ली थी।
और अर्जुन ने केवल श्री कृष्ण को मांगा था।
उस समय भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन की चुटकी (मजाक) लेते हुए
कहा:
"हार निश्चित हैं तेरी, हर दम रहेगा उदास ।
माखन दुर्योधन ले गया, केवल छाछ बची तेरे पास ।"
अर्जुन ने कहा :- हे प्रभु
"जीत निश्चित हैं मेरी, दास हो नहीं सकता उदास ।
माखन लेकर क्या करूँ, जब माखन चोर हैं मेरे पास...!!!!
" *जय श्री कृष्ण* "

Friday 19 August 2016

गुरु शिष्य


बात कुछ इस तरह है कि जब श्री रामकृष्ण परमहंस को केंसर हुआ था,तब बीमारी के कारण वे खाना नही खा पाते थे। 
स्वामी विवेकानंद अपने गुरु की इस हालात से बहुत चिंतित थे।
एक दिन परमहंस जी ने पूछा,
ठाकुर:"नरेंद्र, क्या तुझे वो दिन याद है,जब तू अपने घर से मेरे पास मंदिर में आता था, तूने दो-दो दिनों से कुछ नहीं खाया होता था। परंतु अपनी माँ से झूठ कह देता था की तूने अपने मित्र के घर खा लिया है,ताकि तेरी गरीब माँ थोड़े बहुत भोजन को तेरे छोटे भाई को परोस दे। है न ?"
नरेन्द्र ने रोते-रोते हां में सर हिला दिया।
ठाकुर फिर बोले,"और जब तू यहां मेरे पास मंदिर आता,तो अपने चहरे पर ख़ुशी का मख़ौटा पहन लेता था । लेकिन में भी तो कम नही।झट जान जाता की तेरे पेट में चूहों का पूरा कबीला धमा-चौकड़ी मचा रहा है, की तेरा शरीर क्षुधाग्रस्त है।और फिर तुझे अपने हाथो से लड्डू,पेड़े,मख्खन-मिश्री खिलाता था। है ना?"
नरेन्द्र ने सुबकते हुए गर्दन हिलाई।
अब स्वामी रामकृष्ण फिर से मुस्कराये और पूछा-"कैसे जान लेता था मै यह बात? कभी सोचा है तूने? 
नरेन्द्र सिर उठाकर परमहंस को देखने लगे।
ठाकुर:"बता न, मैं कैसे तेरी आंतरिक स्थिति को जान लेता था ?"
नरेन्द्र-"क्योंकि आप अंतर्यामी माँ है,ठाकुर।"
ठाकुर:"अंतर्यामी,अंतर्यामी किसे कहते है?"
नरेन्द्र-"जो सब के अंदर की जाने"
ठाकुर:"कोई अंदर की कब जान सकता है ?"
नरेन्द्र-"जब वह स्वयं अंदर में ही विराजमान हो।"
ठाकुर:"याने में तेरे अंदर भी बैठा हूँ.....हूँ ?"
नरेन्द्र-"जी बिल्कुल। आप मेरे ह्रदय में समाये हुए है।"
ठाकुर:"तेरे भीतर में समाकर में हर बात जान लेता हूँ। हर दुःख दर्द पहचान लेता हु।तेरी भूख का अहसास कर लेता हूँ तो क्या तेरी तृप्ति मुझ तक नही पहुचती होगी ?"
नरेन्द्र-"तृप्ति ?"
ठाकुर:"हा तृप्ति!जब तू भोजन खाता है और तुझे तृप्ति होती है,क्या वो मुझे तृप्त नही करती होगी ?
अरे पगले, गुरु अंतर्यामी है,अंतर्जगत का स्वामी है। वह अपने शिष्यो के भीतर बैठा सबकुछ भोगता है। में एक नहीं हज़ारों मुखो से खाता हूँ। तेरे,लाटू के,काली के,गिरीश के,सबके। याद रखना,गुरु कोई बाहर स्थित एक देह भर नहीं है। वह तुम्हारे रोम-रोम का वासी है। तुम्हे पूरी तरह आत्मसात कर चुका है। अलगाव कही है ही नहीं। अगर कल को मेरी यह देह नहीं रही,तब भी जिऊंगा,तेरे जरिए जिऊंगा। में तुझमे रहूँगा,तू मुझमे।"

Thursday 18 August 2016

एक गहन विश्राम जीवन की थकान के बाद

मृत्यु के क्षण में लोगों को रोते, उदास, बेचैन देखते हो - वह घबराहट मृत्यु की वजह से नहीं आती
वह घबराहट तो खो गये जीवन के बहुमूल्य अवसर के कारण आती है

एक अवसर मिला था, हाथ में आया और चला गया
मृत्यु से कोई कभी भयभीत नही होता, क्योंकि जिसे तुम जानते नहीं, उससे तुम भयभीत कैसे होओगे? मृत्यु को तुमने कभी देखा? उससे तुम डरोगे कैसे? अनजान से भय कैसा? उसने तुम्हें कभी कोई नुकसान पहुंचाया? कोई हानि की, जो तुम रोओगे, तड़पोगे, चिल्लाओगे? नहीं, असली बात और है।

मृत्यु के क्षण में तुम्हें पहली दफे समझ आती है कि सारा जीवन बेकार गया 
बेकार के कार्यो में लगा रहा
अब समय न बचा और यह मृत्यु सामने आ गयी, अब क्या करूं? तुम्हारी सारी दीनता तुम्हारे जीवन भर के असफल जाने की कथा है
 
जिसने जीवन को ठीक से जीया और जिसने जीवन के रहस्य को जाना -पहचाना और जिसके मंदिर में परमात्मा प्रविष्ट हुआ 
 जिस के मनमंदिर का सिंहासन खाली न रहा
जिसके ह्रदय में प्रेम का रस भर गया और जिसकी रसना पर राम का नाम रहा - वह मृत्यु का आनन्द से स्वागत करता है।
जिसने जीवन को जाना, उसकी कोई मृत्यु नहीं है।
 वह जीवन को जानकर मृत्यु को विश्राम की तरह पाता है - एक गहन विश्राम जीवन की थकान के बाद