Friday, 19 August 2016

गुरु शिष्य


बात कुछ इस तरह है कि जब श्री रामकृष्ण परमहंस को केंसर हुआ था,तब बीमारी के कारण वे खाना नही खा पाते थे। 
स्वामी विवेकानंद अपने गुरु की इस हालात से बहुत चिंतित थे।
एक दिन परमहंस जी ने पूछा,
ठाकुर:"नरेंद्र, क्या तुझे वो दिन याद है,जब तू अपने घर से मेरे पास मंदिर में आता था, तूने दो-दो दिनों से कुछ नहीं खाया होता था। परंतु अपनी माँ से झूठ कह देता था की तूने अपने मित्र के घर खा लिया है,ताकि तेरी गरीब माँ थोड़े बहुत भोजन को तेरे छोटे भाई को परोस दे। है न ?"
नरेन्द्र ने रोते-रोते हां में सर हिला दिया।
ठाकुर फिर बोले,"और जब तू यहां मेरे पास मंदिर आता,तो अपने चहरे पर ख़ुशी का मख़ौटा पहन लेता था । लेकिन में भी तो कम नही।झट जान जाता की तेरे पेट में चूहों का पूरा कबीला धमा-चौकड़ी मचा रहा है, की तेरा शरीर क्षुधाग्रस्त है।और फिर तुझे अपने हाथो से लड्डू,पेड़े,मख्खन-मिश्री खिलाता था। है ना?"
नरेन्द्र ने सुबकते हुए गर्दन हिलाई।
अब स्वामी रामकृष्ण फिर से मुस्कराये और पूछा-"कैसे जान लेता था मै यह बात? कभी सोचा है तूने? 
नरेन्द्र सिर उठाकर परमहंस को देखने लगे।
ठाकुर:"बता न, मैं कैसे तेरी आंतरिक स्थिति को जान लेता था ?"
नरेन्द्र-"क्योंकि आप अंतर्यामी माँ है,ठाकुर।"
ठाकुर:"अंतर्यामी,अंतर्यामी किसे कहते है?"
नरेन्द्र-"जो सब के अंदर की जाने"
ठाकुर:"कोई अंदर की कब जान सकता है ?"
नरेन्द्र-"जब वह स्वयं अंदर में ही विराजमान हो।"
ठाकुर:"याने में तेरे अंदर भी बैठा हूँ.....हूँ ?"
नरेन्द्र-"जी बिल्कुल। आप मेरे ह्रदय में समाये हुए है।"
ठाकुर:"तेरे भीतर में समाकर में हर बात जान लेता हूँ। हर दुःख दर्द पहचान लेता हु।तेरी भूख का अहसास कर लेता हूँ तो क्या तेरी तृप्ति मुझ तक नही पहुचती होगी ?"
नरेन्द्र-"तृप्ति ?"
ठाकुर:"हा तृप्ति!जब तू भोजन खाता है और तुझे तृप्ति होती है,क्या वो मुझे तृप्त नही करती होगी ?
अरे पगले, गुरु अंतर्यामी है,अंतर्जगत का स्वामी है। वह अपने शिष्यो के भीतर बैठा सबकुछ भोगता है। में एक नहीं हज़ारों मुखो से खाता हूँ। तेरे,लाटू के,काली के,गिरीश के,सबके। याद रखना,गुरु कोई बाहर स्थित एक देह भर नहीं है। वह तुम्हारे रोम-रोम का वासी है। तुम्हे पूरी तरह आत्मसात कर चुका है। अलगाव कही है ही नहीं। अगर कल को मेरी यह देह नहीं रही,तब भी जिऊंगा,तेरे जरिए जिऊंगा। में तुझमे रहूँगा,तू मुझमे।"

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