Saturday, 7 November 2015
Thursday, 14 May 2015
Monday, 11 May 2015
Sunday, 10 May 2015
रूपध्यान
क्योंकि उपासना मनको करनी है इसलिये नं . 1- रूपध्यान ! और दूसरी चीज़ जो सामने लाई गयी वह है सेवा वासना बढ़ाना ! मैंने आप लोगों को बताया था न कि जो दिव्य प्रेम गुरु के द्वारा मिलेगा उस प्रेम से सेवा मिलेगी ! तो अंतिम लक्ष्य सेवा है ! इसलिये अभी से सेवा की वासना बढ़ाना है ! अब भगवान् जब तक प्राप्त नहीं हैं गुरु सेवा बढ़ाना है , वह भावना , वासना वह इच्छा बढ़ाना है ! अपनी शक्ति के अनुसार वह सेवा भावना गुरु के प्रति हुई , भगवान के प्रति वाला फल देती है ! और फिर वह वासना साधना करते - करते जब भगवत प्राप्ति कराती है तो सेवा में उसका बहुत बड़ा उपयोग स्वाभाविक रूप से हो जाता है ! इसलिये दो बांते ध्यान रखनी हैं - मन से रूपध्यान और सेवा वासना बढ़ाना !
रो कर मांगो
रो कर मांगो | मैं दे दूंगा ठीक ठीक माँगो | इठला के नहीं | जैसे मंदिरों में कहते हो 'त्वमेव माता च पिता त्वमेव बंधु: च सखा त्वमेव' | ऐसे नहीं चलेगा | शब्द ज्ञान में भगवान् नहीं पड़ते संसार वाले पड़ते है | मीठी मीठी बात किया संसार में किसी से | हम तुमसे बहुत प्यार करते हैं, तुम्हारे बिना मर जायेंगें, ज़हर खा लेंगे, खोपडा खा लेंगे | ये सब तो संसार में चल जाएगा, भगवान् के यहाँ नहीं चलेगा |
युगलवर, झूलें कुंज मझार
युगलवर, झूलें कुंज मझार |
श्री वृषभानुदुलारी प्यारी, प्रियतम नंदकुमार |
बह्यो जात रस – सुधा – माधुरी, छवि - निधि – सिंधु अपार |
मृदु मुसकात, झूमि झुकि झूलत, जनु दोउ रूप सिँगार |
बिनु वानी बतरात परस्पर, दुहुँन दृगन दृग डार |
कहि न जात बड़भाग विटप को, बड़भागिनि वह डार |
जो निज गल बंधन दै झुलवति, युगल – नवल – सरकार |
होत मगन दोउ यमुना जल बिच, निज प्रतिबिंब निहार |
लली लाल के या झूलन पर, हम ‘कृपाल’ बलिहार ||
भावार्थ - लाड़िली – लाल युगल – सरकार झूला झूल रहे हैं | श्री वृषभानु की बेटी एवं नंद के लाल दोनों ही दिव्य प्रेमरस के अमृत को बरसा रहे हैं | दोनों मधुर मुस्कान के साथ झूमते हुए झुक – झुककर झूल रहे हैं, मानो रूप और श्रृंगार साक्षात् स्वरूप धारण करके आये हों | बिना वाणी के ही आँखों – में – आँखें डालकर संकेत से ही परस्पर बातें करते हैं | उस वृक्ष एवं उस डाली के भाग्य की सराहना भला कौन कर सकता है जो अपने गले में फाँसी डालकर प्रिया – प्रियतम को झुला रही हैं | दोनों ही झूलते हुए यमुना के जल में परस्पर अपनी – अपनी परछाई देखकर अत्यन्त ही आनन्द – विभोर हो रहे हैं | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि लाड़िली लाल की इस मधुर झूला – लीला की मैं बार – बार बलैया लेता हूँ |
शरणागति
साधक का प्रश्न - शरणागति का क्या अर्थ है ?
श्री महाराजजी द्वारा उत्तर - हमें भगवान् की शरणागति करनी है शरणागति का मतलब है कुछ न करना लेकिन अनादिकाल से हम सब कुछ करने के अभ्यस्त है ― इसलिये कुछ न करने की अवस्था पर आने के लिये हमे बहुत कुछ करना है इसी का नाम साधना है । जो भगवान् का दर्शन आदि मिलता है वह सब उसी की शक्ति ही से मिलता है ।
जीव कृष्ण नित्य दास गोविन्द राधे ।
यही तत्वज्ञान निज बुद्धि में बिठा दे ।।
Saturday, 9 May 2015
गुरु कृपाI
हे प्रभु ! मैं तो सदा से ही माया से भ्रमित होकर आपसे विमुख होकर संसार में भटकता रहा। गुरु कृपाI से मेरी मोह निद्रा टूटी। उनके इस उपकार के बदले में मैं कंगाल भला कौन सी वस्तु उन्हें अर्पित कर सकता हूँ। क्योंकि गुरु के द्वारा दिये गये ज्ञान के उस शब्द के बदले सम्पूर्ण विश्व की सम्पति भी उन्हें सौंप दी जाय तो भी ज्ञान का मूल्य नहीं चुकाया जा सकता। ज्ञान दिव्य है और सांसारिक पदार्थ मायिक हैं।
--------जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु ।
रूपध्यान
देखिये , दो बात पर जोर दिया जा रहा है ! एक तो इष्टदेव का ध्यान , क्योंकि उपासना मनको करनी है इसलिये नं . 1- रूपध्यान ! और दूसरी चीज़ जो सामने लाई गयी वह है सेवा वासना बढ़ाना ! मैंने आप लोगों को बताया था न कि जो दिव्य प्रेम गुरु के द्वारा मिलेगा उस प्रेम से सेवा मिलेगी ! तो अंतिम लक्ष्य सेवा है ! इसलिये अभी से सेवा की वासना बढ़ाना है ! अब भगवान् जब तक प्राप्त नहीं हैं गुरु सेवा बढ़ाना है , वह भावना , वासना वह इच्छा बढ़ाना है ! अपनी शक्ति के अनुसार वह सेवा भावना गुरु के प्रति हुई , भगवान के प्रति वाला फल देती है ! और फिर वह वासना साधना करते - करते जब भगवत प्राप्ति कराती है तो सेवा में उसका बहुत बड़ा उपयोग स्वाभाविक रूप से हो जाता है ! इसलिये दो बांते ध्यान रखनी हैं - मन से रूपध्यान और सेवा वासना बढ़ाना !
--श्री महाराजजी
Friday, 1 May 2015
ये संसार सारहीन है
देखिये , दो बात पर जोर दिया जा रहा है ! ये संसार सारहीन है इसमें इतना ही सार है कि मानव शरीर पा कर हरि एवं गुरु से सच्चा प्रेम सम्बन्ध स्थापित हो जाय।
.......श्री महाराज जी।
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