Sunday 10 May 2015

युगलवर, झूलें कुंज मझार


युगलवर, झूलें कुंज मझार |
श्री वृषभानुदुलारी प्यारी, प्रियतम नंदकुमार |
बह्यो जात रस – सुधा – माधुरी, छवि - निधि – सिंधु अपार |
मृदु मुसकात, झूमि झुकि झूलत, जनु दोउ रूप सिँगार |
बिनु वानी बतरात परस्पर, दुहुँन दृगन दृग डार |
कहि न जात बड़भाग विटप को, बड़भागिनि वह डार | 
जो निज गल बंधन दै झुलवति, युगल – नवल – सरकार |
होत मगन दोउ यमुना जल बिच, निज प्रतिबिंब निहार |
लली लाल के या झूलन पर, हम ‘कृपाल’ बलिहार ||

भावार्थ - लाड़िली – लाल युगल – सरकार झूला झूल रहे हैं | श्री वृषभानु की बेटी एवं नंद के लाल दोनों ही दिव्य प्रेमरस के अमृत को बरसा रहे हैं | दोनों मधुर मुस्कान के साथ झूमते हुए झुक – झुककर झूल रहे हैं, मानो रूप और श्रृंगार साक्षात् स्वरूप धारण करके आये हों | बिना वाणी के ही आँखों – में – आँखें डालकर संकेत से ही परस्पर बातें करते हैं | उस वृक्ष एवं उस डाली के भाग्य की सराहना भला कौन कर सकता है जो अपने गले में फाँसी डालकर प्रिया – प्रियतम को झुला रही हैं | दोनों ही झूलते हुए यमुना के जल में परस्पर अपनी – अपनी परछाई देखकर अत्यन्त ही आनन्द – विभोर हो रहे हैं | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि लाड़िली लाल की इस मधुर झूला – लीला की मैं बार – बार बलैया लेता हूँ | 

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