Thursday, 19 February 2015

Wednesday, 18 February 2015

भक्ति शतक


भक्ति शतक: #21

तीन रूप श्री कृष्ण को, वेदव्यास बताय |
ब्रह्म और परमात्मा, अरु भगवान कहाय ||

Teen roop Shri Krishna ko, Ved Vyas bataya.
Brahm aur paramatma, aru bhagwan kayaa.

Ved Vyas Ji has described three forms of supreme God Krishna in the Bhagwatam: 
(1) brahma, (2) paramatma, (3) bhagwan.

Divine Words


अन्दर जो चेतन तत्त्व है, वो न मनुष्य है, न पशु है, न पक्षी है। 
वेद कहता है— 

यद् यच्छरीरमादत्ते तेन तेन स युज्यते । 

ये चेतन तत्त्व जिस शरीर में जाता है, लोग वैसे ही बोल देते हैं— 
ये मनुष्य है, ये पशु है, ये पक्षी है। 
अर्थात् शरीर चेतन तत्त्व नहीं है। 


-----जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
प्रिय साधक!

"कहाँ हो तुम? अपने आप सोचो। 
सोचो और फ़ील करो और सुधार करो, 
तो धीरे-धीरे डेली आगे बढ़ते जाओगे।"

               राधे राधे   

 

देखिए संसार मे चौरासी लाख प्रकार के शरीर है उसमें केवल मनुष्य शरीर ऐसा है जिसमें हम साधना के द्वारा दुःखों से छुटकारा पाकर आनंद प्राप्त कर सकते है ।  "हम लोगो ने कभी नहीं सोचा,कि ये मानव देह की क्या इम्पोर्टेंस(importance) है....हम देख तो रहे हें, एक गढ़े में, करोडो कीड़े कैसा जीवन बिता रहे है....हम भी कभी वही थे......
एक जंगल का प्राणी, भूख के मारे मर जाता है, पानी के मारे मर जाता है, उससे बलवान प्राणी उसको खा जाता है, वो कुछ नहीं कर सकता...ये सब हम लोग देख रहे है आँख से, कि हम भी उन सब योनियों में जा चुके है और वे सब दुःख भोग चुके है और हम फिर वही गलती कर रहे है, कि मानव देह पाकर और इस देह का महत्व realize नहीं करते, महसूस नहीं करते. बहुत बार आप लोगों को बताया गया है कि देवता भी इस मानव देह को चाहते हैं,  इसलिए सात अरब आदमियों। में सात करोड़ भी ऐसे नहीं है जिनके ऊपर भगवान की ऐसी कृपा हो कि कोई बताने वाला सही- सही ज्ञान करा दे कि क्या करने से तुम्हारे दुःख चले जायेंगे और आनंद मिल जाएगा । और जिन लोगों को ये सौभाग्य प्राप्त हो चुका है, ये जान चुके है किसी महापुरुष से वे लोग भी फिर चौरासी लाख का हिसाब बैठा रहे है । क्यों? 

आपको बताया गया है कि जड़ भरत सरीखे परमहंस को भी हिरन बनना पड़ा। अंतिम समय में हिरन का चिंतन किया । आप लोग घर छोड़ कर आये है फिर घर वालों का चिंतन कयों करते है? चिंतन करने से क्या मिलेगा तुमको?  यानी हम लोग अपने सर्व नाश के लिये प्रतिज्ञा किये है ऐ मन तुझको भगवान की ओर नहीं चलने देंगे । करोड़ कृपालु आवें। कयोंकि मरने के बाद मुझे फिर मनुष्य नहीं बनना है। कुत्ते, बिल्ली, गधे की योनियों में जाना है। क्यों शोक सवार है दुःख भोगनेका?  नरकादी अनंत जन्मों का दुःख अरे सहा नहीं जाएगा इतना दुःख होगा,  चीख- चीख कर रोवोगे कोई सुनने वाला नहीं होगा उस समय कृपालु भी कुछ नहीं कर सकते,  भगवान भी कुछ नहीं कर सकते। आप लोग समझते है मरने के बाद देखा जायेगा। क्या देखोगे,   फिर तो भोगोगे। एक विद्यार्थी परीक्षा के समय तीन घंटे में कुछ लिखता नहीं । या गलत फलत लिखता है तो देखा क्या जायेगा,  उसका जब नंबर आयेगा,  तो जीरो बटे सौ, तब मालूम हो। 
आत्मा का कमाने का मामला सोचो। तुम आत्मा हो , शरीर नहीं हो। शरीर को तो छोड़ना पड़ेगा , जबरदस्ती छुड़वाया जायगा शरीर। 


क्षणभंगुर जीवन की कलिका ,
कल प्रात को जाने खिली न खिली।

तो मैं आप लोगों से निवेदन करता हूँ,  आज्ञा देता हूँ,  प्रार्थना करता हूँ आप लोग अभ्यास करो। अच्छे बन जाओ। गंदा चिंतन बंद करो,  मन की मत सुनो।
मैंने तुम लोगों के लिए इतना कुछ किया,  उस के बदले में तुम लोग मुझे प्रेम (मन)  नहीं दे सकते। कयों? तुम लोग मेरी मेहनत को ऐसे ही गँवा दोगे?  मैं तुमसे एक बार प्रेम की भिक्षा माँग रहा हूँ। हमने अपना सारा जीवन तुम लोगों के लिये अर्पित किया है,  इसलिए एक बार प्रेम (मन)  की भिक्षा माँग रहा हूँ। अभ्यास करो, मन की मत सुनो। श्वास श्वास में राधे नाम का जप करो। अगर आप लोग मेरी बात मानकर दस दिन भी अभ्यास कर लेंगे तो फिर आपको आदत पड़ जायेगी। फिर आपसे रहा नहीं जायेगा। बिना राधे का जप किये। कोई भी चीज ज़बरदस्ती करो तो अभ्यास हो जाता है । मन में निश्चय करो की हमारा लक्ष्य भगवान ही रहें, हम भगवान के लिए ही सब काम करें, भगवान के लिए ही जियें और अंत में भगवान का स्मरण करते हुए ही इस नश्वर शरीर को त्याग कर भगवान के चरणों में चलें जाएँ । गुरु एवं भगवान में कभी भी भेद मत मानो सदा उन्हें अपने साथ मानो,  अन्यथा मन मक्कारी करने लगेगा। 

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ।।
नामी के समान ही हैं नाम अरु धामा |
रो के पुकारो जो तो कहें ब्रज बामा || १३ ||

नामी की समस्त शक्तियां नाम एवं धाम में विराजमान हैं | यदि कोई जीव इस बात पर शत प्रतिशत विश्वास करके रो कर हरि को बुलाता है तो श्री हरि दौड़े चले आते हैं |


श्यामा श्याम गीत 
जगद्गुरु कृपालु जी महाराज द्वारा रचित

विधि हरि हर सुर मिलि एक ठामा |
रो के पुकारा हरि आए तजि धामा || १४ ||

जब पृथ्वी पर अत्याचार बढ़ गए, तब ब्रह्मादि देवताओं ने एक स्थान पर एकत्रित होकर रोकर श्री हरि का आह्वाहन किया | उस समय सर्वशक्तिमान प्रभु देवताओं के निकट अपना धाम छोड़कर चले आए |

    श्यामा श्याम गीत 
जगद्गुरु कृपालु जी महाराज द्वारा रचित

Divine words


जो नींद में सो रहा हो उसे जगाया जा सकता है। किन्तु जो सोने का बहाना कर रहा हो , ईश्वर से विमुख होकर विषय भोग में लिप्त रहने में ही अपना भला समझे , उसे कौन समझा सकता है।
.........जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

दिव्य ज्ञान

अध्याय 4 श्लोक 12

इस संसार में मनुष्य सकाम कर्मों में सिद्धि चाहते हैं, फलस्वरूप वे देवताओं की पूजा करते हैं | निस्सन्देह इस संसार में मनुष्यों को सकाम कर्म का फल शीघ्र प्राप्त होता है |

अध्याय 4 : दिव्य ज्ञान

श्लोक 4 . 12

काङ्न्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः |
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा || १२ ||

काङ्क्षन्तः – चाहते हुए; कर्मणाम् – सकाम कर्मों की;सिद्धिम् – सिद्धि; यजन्ते – यज्ञों द्वारा पूजा करते हैं;इह - इस भौतिक जगत् में; देवताः – देवतागण; क्षिप्रम्– तुरन्त ही; हि – निश्चय ही; मानुषे – मानव समाज में;लोके – इस संसार में; सिद्धिः – सिद्धि, सफलता;भवति – होती है; कर्म-जा – सकाम कर्म से |

भावार्थ
इस संसार में मनुष्य सकाम कर्मों में सिद्धि चाहते हैं, फलस्वरूप वे देवताओं की पूजा करते हैं | निस्सन्देह इस संसार में मनुष्यों को सकाम कर्म का फल शीघ्र प्राप्त होता है |

 तात्पर्य

इस जगत् के देवताओं के विषय में भ्रान्त धारणा है और विद्वता का दम्भ करने वाले अल्पज्ञ मनुष्य इन देवताओं को परमेश्र्वर के विभिन्न रूप मान बैठते हैं | वस्तुतः ये देवता ईश्र्वर के विभिन्न रूप नहीं होते , किन्तु वे ईश्र्वर के विभिन्न अंश होते हैं | ईश्र्वर तो एक है, किन्तु अंश अनेक हैं | वेदों का कथन है – नित्यो नित्यनाम् | ईश्र्वर एक है | इश्र्वरः परमः कृष्णः | कृष्ण ही एकमात्र परमेश्र्वर हैं और सभी देवताओं को इस भौतिक जगत् का प्रबन्ध करने के लिए शक्तियाँ प्राप्त हैं | वे कभी परमेश्र्वर – नारायण, विष्णु या कृष्ण के तुल्य नहीं हो सकते | जो व्यक्ति ईश्र्वर तथा देवताओं को एक स्तर पर सोचता है, वह नास्तिक या पाषंडी कहलाता है | यहाँ तक कि ब्रह्मा तथा शिवजी जैसे बड़े-बड़े देवता परमेश्र्वर की समता नहीं कर सकते | वास्तव में ब्रह्मा तथा शिव जैसे देवताओं द्वारा भगवान् की पूजा की जाती है (शिवविरिञ्चिनुतम्) | तो भी आश्चर्य की बात यह है कि अनेक मुर्ख लोग मनुष्यों के नेताओं की पूजा उन्हें अवतार मान कर करते हैं | इह देवताः पास इस संसार के शक्तिशाली मनुष्य या देवता के लिए आया है , लेकिन नारायण, विष्णु या कृष्ण जैसे भगवान् इस संसार के नहीं हैं | वे भौतिक सृष्टि से परे रहने वाले हैं | निर्विशेषवादियों के अग्रणी श्रीपाद शंकराचार्य तक मानते हैं कि नारायण या कृष्ण इस भौतिक सृष्टि से परे हैं फिर भी मुर्ख लोग (हतज्ञान) देवताओं की पूजा करते हैं, क्योंकि वे तत्काल फल चाहते हैं | उन्हें फल मिलता भी है, किन्तु वे यह नहीं जानते की ऐसे फल क्षणिक होते हैं और अल्पज्ञ मनुष्यों के लिए हैं | बुद्धिमान् व्यक्ति कृष्णभावनामृत में स्थित रहता है | उसे किसी तत्काल क्षणिक लाभ के लिए किसी तुच्छ देवता की पूजा करने की आवश्यकता नहीं रहती | इस संसार के देवता तथा उनके पूजक, इस संसार के संहार के साथ ही विनष्ट हो जाएँगे | देवताओं के वरदान भी भौतिक तथा क्षणिक होते हैं | यह भौतिक संसार तथा इसके निवासी, जिनमें देवता तथा उनके पूजक भी सम्मिलित हैं, विराट सागर में बुलबुलों के समान हैं | किन्तु इस संसार में मानव समाज क्षणिक वस्तुओं – यथा सम्पत्ति, परिवार तथा भोग की सामग्री के पीछे पागल रहता है | ऐसी क्षणिक वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए लोग देवताओं की या मानव समाज के शक्तिशाली व्यक्तियों की पूजा करते हैं | यदि कोई व्यक्ति किसी राजनीतिक नेता की पूजा करके संसार में मन्त्रिपद प्राप्त कर लेता है, तो वह सोचता है की उसने महान वरदान प्राप्त कर लिया है | इसलिए सभी व्यक्ति तथाकथित नेताओं को साष्टांग प्रणाम करते हैं, जिससे वे क्षणिक वरदान प्राप्त कर सकें और सचमुच उन्हें ऐसी वस्तुएँ मिल भी जाती हैं | ऐसे मुर्ख व्यक्ति इस संसार के कष्टों के स्थायी निवारण के लिए कृष्णभावनामृत में अभिरुचि नहीं दिखाते | वे सभी इन्द्रियभोग के पीछे दीवाने रहते हैं और थोड़े से इन्द्रियसुख के लिए वे शक्तिप्रदत्त-जीवों की पूजा करते हैं, जिन्हें देवता कहते हैं | यह श्लोक इंगित करता है कि विरले लोग ही कृष्णभावनामृत में रूचि लेते हैं | अधिकांश लोग भौतिक भोग में रूचि लेते हैं, फलस्वरूप वे किसी न किसी शक्तिशाली व्यक्ति की पूजा करते हैं |

रूपध्यान


रूपध्यान 

ध्यान करो तुम्हारे सामने श्यामा- श्याम खड़े हैं । समस्त श्रृंगारों से युक्त, मुस्करा रहे हैं, तुम्हारी ही ओर देख रहे हैं, फिर ध्यान करो वे श्यामसुन्दर तुम्हारे आलिंगन के लिए हाथ उठा रहे हैं । फिर ध्यान करो वे कुछ कह रहे हैं । क्या. .... सुनाई नहीं पड़ता, क्योंकि तुम्हारे कान प्राकृत हैं । अच्छा रोकर, उनसे दिव्य शक्ति माँगो ताकि वे शब्द सुनाई पड़े । अच्छा तो हम बताते हैं - वे कह रहे हैं तू केवल मुझे ही अपना सर्वस्व क्यों नहीं मान लेता । सुना- विश्वास करो ।
पुनः ध्यान करो वे तुम्हें इस शरीर से निकाल कर दिव्य शरीर देकर अपने गोलोक ले जा रहे हैं 

अब देखो गोलोक, यहाँ सब कुछ स्वयं श्रीकृष्ण ही बने हैं । सब जड़ - चेतन स्वयं श्याम सुन्दर ही बने हैं । सूँघो, दिव्य सुगन्ध । देखो, दिव्य रूप!

अब देखो! उनके परिकर तुम्हारे स्वागत के लिए आये हैं । तुम्हें अपनी मंडली में सखा लोग एवं सखी लोग घसीटे लिए जाते हैं । वे कहते हैं यह हमारे मंडल का है । तुम भी तो हो कुछ कहो, लेकिन तुम तो विभोर हो । क्या कहोगे? अच्छा, खुशी के मारे नाचो ।

आँख खोलकर ध्यान करो । आपके सामने किसी स्थान पर वे खड़े हैं । अब वहाँ से दूसरी जगह पर आ रहे हैं फिर तुम्हारी ओर आ रहे हैं । 

फिर ध्यान करो वे तुम्हारे हृदय में चले गये किन्तु तुम देखना चाहते हो । हाय प्रियतम!  बाहर आ जाओ न। अब बालवत् रोओ ।

फिर ध्यान करो- वे बाहर आ गये । किन्तु वे तुम्हारा स्पर्श नहीं करते, कहते हैं तुम्हारे हृदय में अभी और भी कामनायें हैं । अतएव तुम अशुद्ध हो । अच्छा, रोकर अभी सब कामनायें निकाल दो और कहो- अच्छा, प्राण- धन लो, अब तुम्हीं तुम हो । बस वे आ गये पास, बिल्कुल पास, विभोर हो जाओ ।

उपरोक्त प्रकार से ध्यान करो ।
प्रत्येक क्षण काम में लो । मन को खाली न रहने दो । ऐसा कुछ दिन करने पर ज्ञात हो जायेगा कि तुम कहाँ हो

रूपध्यान करते समय गुरु या भगवान की जिस लीला में जाना चाहो, चले जाओ तथा उनके दिव्य मिलन व दर्शन के लिए तडपन पैदा करो । लाख- लाख आँसू बहाओ लेकिन किसी भी आँसू को तब तक सच्चा न मानो, जब तक स्वयं श्यामसुन्दर आकर अपने पीताम्बर से आँसुओं को न पोंछें । इतनी व्याकुलता पैदा करो कि नेत्र और प्राणों में बाजी लग जाये, पल- पल युग के समान लगे ।

महत्वपूर्ण साधना रूपध्यान सहित है । हरि और गुरु का रूप बना कर, उनको चैतन्य, साक्षात प्रेमास्पद मान कर कितनी देर और कितना अपने साथ अनुभव करते हो । यही सच्ची साधना है । मूर्ति अथवा फोटो का उपयोग आप कर सकते हैं लेकिन उसमें से उन्हें निकाल कर, भावना द्वारा उनका चैतन्य रूप बनाकर उपासना करनी होगी । तब उस दिव्य पर्सनैलिटी का स्वरूपानन्द तुम्हें प्राप्त हो सकेगा । उनके अकारण करूण और दयालु स्वभाव का सदा ध्यान रहे । मिलन और विरह का रूपध्यान बनाते रहो तथा सदा निष्काम रहो ।

श्री महाराज जी. ..!!!

दिव्य ज्ञान

अध्याय 4 श्लोक 11

जिस भाव से सारे लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, उसी के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ | हे पार्थ! प्रत्येक व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे पथ का अनुगमन करता है |

अध्याय 4 : दिव्य ज्ञान

श्लोक 4 . 11

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् |
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः || ११ ||

ये – जो; यथा – जिस तरह; माम् – मेरी; प्रपद्यन्ते – शरण में जाते हैं; तान् – उनको; तथा – उसी तरह; एव– निश्चय ही; भजामि – फल देता हूँ; अहम् – मैं; मम– मेरे; वर्त्म – पथ का; अनुवर्तन्ते – अनुगमन करते हैं;मनुष्याः – सारे मनुष्य; पार्थ – हे पृथापुत्र; सर्वशः – सभी प्रकार से |

भावार्थ

जिस भाव से सारे लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, उसी के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ | हे पार्थ! प्रत्येक व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे पथ का अनुगमन करता है |
 तात्पर्य
प्रत्येक व्यक्ति कृष्ण को उनके विभिन्न स्वरूपों में खोज रहा है | भगवान् श्रीकृष्ण को अंशतः उनके निर्विशेष ब्रह्मज्योति तेज में तथा प्रत्येक वस्तु के कण-कण में रहने वाले सर्वव्यापी परमात्मा के रूप में अनुभव किया जाता है, लेकिन कृष्ण का पूर्ण साक्षात्कार तो उनके शुद्ध भक्त ही कर पाते हैं | फलतः कृष्ण प्रत्येक व्यक्ति की अनुभूति के विषय हैं और इस तरह कोई भी और सभी अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार तुष्ट होते हैं | दिव्य जगत् में भी कृष्ण अपने शुद्ध भक्तों के साथ दिव्य भाव से विनिमय करते हैं जिस तरह कि भक्त उन्हें चाहता है | कोई एक भक्त कृष्ण को परम स्वामी के रूप में चाह सकता है, दूसरा अपने सखा के रूप में, तीसरा अपने पुत्र के रूप में और चौथा अपने प्रेमी के रूप में | कृष्ण सभी भक्तों को समान रूप से उनके प्रेम की प्रगाढ़ता के अनुसार फल देते हैं | भौतिक जगत् में भी ऐसी ही विनिमय की अनुभूतियाँ होती हैं और वे विभिन्न प्रकार के भक्तों के अनुसार भगवान् द्वारा समभाव से विनिमय की जाती हैं | शुद्ध भक्त यहाँ पर और दिव्यधाम में भी कृष्ण का सान्निध्य प्राप्त करते हैं और भगवान् की साकार सेवा कर सकते हैं | इस तरह वे उनकी प्रेमाभक्ति का दिव्य आनन्द प्राप्त कर सकते हैं | किन्तु जो निर्विशेषवादी सच्चिदानन्द भगवान् को स्वीकार नहीं करते, फलतः वे अपने व्यक्तित्व को मिटाकर भगवान् की दिव्य सगुन भक्ति के आनन्द को प्राप्त नहीं कर सकते | उनमें से कुछ जो निर्विशेष सत्ता में दृढ़तापूर्वक स्थित नहीं हो पाते, वे अपनी कार्य करने की सुप्त इच्छाओं को प्रदर्शित करने के लिए इस भौतिक क्षेत्र में वापस आते हैं | उन्हें वैकुण्ठलोक में प्रवेश करने नहीं दिया जाता, किन्तु उन्हें भौतिक लोक के कार्य करने का अवसर प्रदान किया जाता है | जो सकामकर्मी हैं, भगवान् उन्हें यज्ञेश्र्वर के रूप में उनके कर्मों का वांछित फल देते हैं | जो योगी हैं और योगशक्ति की खोज में रहते हैं, उन्हें योगशक्ति प्रदान करते हैं | दुसरे शब्दों में, प्रत्येक व्यक्ति की विधियाँ एक ही पथ में सफलता की विभिन्न कोटियाँ हैं | अतः जब तक कोई कृष्णभावनामृत की सर्वोच्च सिद्धि तक नहीं पहुँच जाता तब तक सारे प्रयास अपूर्ण रहते हैं, जैसा कि श्रीमद्भागवत में (२.३.१०) कहा गया है –

अकामः सर्वकामो व मोक्षकाम उदारधीः |
तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम् ||

“मनुष्य चाहे निष्काम हो या फल का इच्छुक या मुक्ति का इच्छुक ही क्यों न हो, उसे पूरे सामर्थ्य से भगवान् की सेवा करनी चाहिए जिससे उसे पूर्ण सिद्धि प्राप्त हो सके, जिसका पर्यवसान कृष्णभावनामृत में होता है |”

मानव देह की क्या इम्पोर्टेंस है !


देखिए संसार मे चौरासी लाख प्रकार के शरीर है उसमें केवल मनुष्य शरीर ऐसा है जिसमें हम साधना के द्वारा दुःखों से छुटकारा पाकर आनंद प्राप्त कर सकते है ।  "हम लोगो ने कभी नहीं सोचा,कि ये मानव देह की क्या इम्पोर्टेंस(importance) है....हम देख तो रहे हें, एक गढ़े में, करोडो कीड़े कैसा जीवन बिता रहे है....हम भी कभी वही थे......
एक जंगल का प्राणी, भूख के मारे मर जाता है, पानी के मारे मर जाता है, उससे बलवान प्राणी उसको खा जाता है, वो कुछ नहीं कर सकता...ये सब हम लोग देख रहे है आँख से, कि हम भी उन सब योनियों में जा चुके है और वे सब दुःख भोग चुके है और हम फिर वही गलती कर रहे है, कि मानव देह पाकर और इस देह का महत्व realize नहीं करते, महसूस नहीं करते. बहुत बार आप लोगों को बताया गया है कि देवता भी इस मानव देह को चाहते हैं,  इसलिए सात अरब आदमियों। में सात करोड़ भी ऐसे नहीं है जिनके ऊपर भगवान की ऐसी कृपा हो कि कोई बताने वाला सही- सही ज्ञान करा दे कि क्या करने से तुम्हारे दुःख चले जायेंगे और आनंद मिल जाएगा । और जिन लोगों को ये सौभाग्य प्राप्त हो चुका है, ये जान चुके है किसी महापुरुष से वे लोग भी फिर चौरासी लाख का हिसाब बैठा रहे है । क्यों? 

आपको बताया गया है कि जड़ भरत सरीखे परमहंस को भी हिरन बनना पड़ा। अंतिम समय में हिरन का चिंतन किया । आप लोग घर छोड़ कर आये है फिर घर वालों का चिंतन कयों करते है? चिंतन करने से क्या मिलेगा तुमको?  यानी हम लोग अपने सर्व नाश के लिये प्रतिज्ञा किये है ऐ मन तुझको भगवान की ओर नहीं चलने देंगे । करोड़ कृपालु आवें। कयोंकि मरने के बाद मुझे फिर मनुष्य नहीं बनना है। कुत्ते, बिल्ली, गधे की योनियों में जाना है। क्यों शोक सवार है दुःख भोगनेका?  नरकादी अनंत जन्मों का दुःख अरे सहा नहीं जाएगा इतना दुःख होगा,  चीख- चीख कर रोवोगे कोई सुनने वाला नहीं होगा उस समय कृपालु भी कुछ नहीं कर सकते,  भगवान भी कुछ नहीं कर सकते। आप लोग समझते है मरने के बाद देखा जायेगा। क्या देखोगे,   फिर तो भोगोगे। एक विद्यार्थी परीक्षा के समय तीन घंटे में कुछ लिखता नहीं । या गलत फलत लिखता है तो देखा क्या जायेगा,  उसका जब नंबर आयेगा,  तो जीरो बटे सौ, तब मालूम हो। 
आत्मा का कमाने का मामला सोचो। तुम आत्मा हो , शरीर नहीं हो। शरीर को तो छोड़ना पड़ेगा , जबरदस्ती छुड़वाया जायगा शरीर। 

क्षणभंगुर जीवन की कलिका ,
कल प्रात को जाने खिली न खिली।


तो मैं आप लोगों से निवेदन करता हूँ,  आज्ञा देता हूँ,  प्रार्थना करता हूँ आप लोग अभ्यास करो। अच्छे बन जाओ। गंदा चिंतन बंद करो,  मन की मत सुनो।
मैंने तुम लोगों के लिए इतना कुछ किया,  उस के बदले में तुम लोग मुझे प्रेम (मन)  नहीं दे सकते। कयों? तुम लोग मेरी मेहनत को ऐसे ही गँवा दोगे?  मैं तुमसे एक बार प्रेम की भिक्षा माँग रहा हूँ। हमने अपना सारा जीवन तुम लोगों के लिये अर्पित किया है,  इसलिए एक बार प्रेम (मन)  की भिक्षा माँग रहा हूँ। अभ्यास करो, मन की मत सुनो। श्वास श्वास में राधे नाम का जप करो। अगर आप लोग मेरी बात मानकर दस दिन भी अभ्यास कर लेंगे तो फिर आपको आदत पड़ जायेगी। फिर आपसे रहा नहीं जायेगा। बिना राधे का जप किये। कोई भी चीज ज़बरदस्ती करो तो अभ्यास हो जाता है । मन में निश्चय करो की हमारा लक्ष्य भगवान ही रहें, हम भगवान के लिए ही सब काम करें, भगवान के लिए ही जियें और अंत में भगवान का स्मरण करते हुए ही इस नश्वर शरीर को त्याग कर भगवान के चरणों में चलें जाएँ । गुरु एवं भगवान में कभी भी भेद मत मानो सदा उन्हें अपने साथ मानो,  अन्यथा मन मक्कारी करने लगेगा। 

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ।।
🙏Radhey Radhey🙏

जीवन का उद्देश्य

Qus→ जीवन का उद्देश्य क्या है?
Ans→ जीवन का उद्देश्य उसी चेतना को जानना है जो जन्म और मरण के बन्धन से मुक्त है। उसे जानना ही मोक्ष है।

Qus→ जन्म और मरण के बन्धन से मुक्त कौन है? 
Ans→ जिसने स्वयं को, उस आत्मा को जान लिया वह जन्म और मरण के बन्धन से मुक्त है।

Qus→संसार में दुःख क्यों है?
Ans→लालच, स्वार्थ, भय संसार के दुःख का कारण हैं।

Qus→ ईश्वर ने दुःख
की रचना क्यों की?
Ans→ ईश्वर ने संसार
की रचना की और मनुष्य ने
अपने विचार और कर्मों से दुःख और सुख की रचना की।

Qus→ क्या ईश्वर है? कौन है वह? क्या रुप है उसका? क्या वह स्त्री है या पुरुष? 
Ans→ कारण के बिना कार्य नहीं। यह संसार उस कारण के अस्तित्व का प्रमाण है। तुम हो इसलिए वह भी है उस महान कारण को ही आध्यात्म में ईश्वर कहा गया है। वह न स्त्री है न पुरुष।

Qus→ भाग्य क्या है?
Ans→हर क्रिया, हर कार्य का एक परिणाम है। परिणाम अच्छा भी हो सकता है, बुरा भी हो सकता है। यह परिणाम ही भाग्य है। आज का प्रयत्न कल का भाग्य है।

Qus→ इस जगत में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? 
Ans→ रोज़ हजारों-लाखों लोग मरते हैं फिर भी सभी को अनंतकाल तक जीते रहने की इच्छा होती है. इससे बड़ा आश्चर्य और क्या हो सकता है?

Qus→किस को गंवाकर चीज मनुष्य
धनी बनता है?
Ans→ लोभ

्Qus→ कौन सा एकमात्र उपाय है जिससे जीवन सुखी हो जाता है? 
Ans → अच्छा स्वभाव ही सुखी होने का उपाय है.

Qus → किस चीज़ के खो जाने पर दुःख
नहीं होता
Ans → क्रोध.

Qus→ धर्म से बढ़कर संसार में और क्या है?

Ans → दया

Qus→क्या चीज़ दुसरो को नहीं देनी चाहिए ?

Ans→ तकलीफें, धोखा

Qus→ क्या चीज़ है जो दूसरों से नहीं लेनी चाहिए ?

Ans→ इज़्ज़त, हाय

Qus→ ऐसी चीज़ जो जीवों से सब कुछ करवा सकती है ?

Ans→मज़बूरी 

Qus→ दुनियां की अपराजित चीज़ ?

Ans→ सत्य

Qus→ दुनियां में सबसे ज़्यादा बिकने वाली चीज़ ?

Ans→ झूठ

Qus→ करने लायक सुकून का कार्य ?

Ans→ परोपकार

Qus→ दुनियां की सबसे बुरी लत ?
Ans→ मोह

Qus→ दुनियां का स्वर्णिम स्वप्न
?
Ans→ जिंदगी

Qus→ दुनियां की अपरिवर्तनशील चीज़ ?

Ans→ मौत

Qus→ ऐसी चीज़ जो स्वयं भी समझ न आये ?

Ans→ मूर्खता

Qus→  दुनियां नष्ट/ नश्वर न होने वाली चीज़ ?

Ans→ आत्मा और ज्ञान

Qus→ कभी न थमने वाली चीज़ ?
Ans→ समय


Kripalu Bachnamrit


Thought of the day


Kusang


Bandana


Tuesday, 17 February 2015

दिव्य ज्ञान

अध्याय 4 श्लोक 5

श्रीभगवान् ने कहा – तुम्हारे तथा मेरे अनेकानेक जन्म हो चुके हैं | मुझे तो उन सबका स्मरण है, किन्तु हे परंतप! तुम्हें उनका स्मरण नहीं रह सकता है |

अध्याय 4 : दिव्य ज्ञान
श्लोक 4 . 5

श्रीभगवानुवाच
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन |
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप || ५ ||

श्री-भगवान् उवाच – श्रीभगवान् ने कहा; बहूनि – अनेक; मे – मेरे; व्यतीतानि – बीत चुके; जन्मानि – जन्म; तव – तुम्हारे; च – भी; अर्जुन – हे अर्जुन; तानि– उन; अहम् – मैं; वेद – जानता हूँ; सर्वाणि – सबों को; न – नहीं; तवम् – तुम; वेत्थ – जानते हो; परन्तप– हे शत्रुओं का दमन करने वाले |

भावार्थ

श्रीभगवान् ने कहा – तुम्हारे तथा मेरे अनेकानेक जन्म हो चुके हैं | मुझे तो उन सबका स्मरण है, किन्तु हे परंतप! तुम्हें उनका स्मरण नहीं रह सकता है |

 तात्पर्य

ब्रह्मसंहिता में (५.३३) हमें भगवान् के अनेकानेक अवतारों की सुचना प्राप्त होती है | उसमें कहा गया है –

अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूपमाद्यं पुराणपुरुषं नवयौवेन च |
वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभक्तौ गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ||

“मैं उन आदि पुरुष श्री भगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ जो अद्वैत,अच्युत तथा अनादि हैं | यद्यपि अनन्त रूपों में उनका विस्तार है, किन्तु तो भी वे आद्य, पुरातन तथा नित्य नवयौवन युक्त रहते हैं | श्री भगवान् के ऐसे सच्चिदा नन्द रूप को प्रायः श्रेष्ठ वैदिक विद्वान जानते हैं, किन्तु विशुद्ध अनन्य भक्तों को तो उनके दर्शन नित्य होते रहते हैं |”

ब्रह्मसंहिता में यह भी कहा गया है –

रामादिमुर्तिषु कलानियमेन तिष्ठन् नानावतारकरोद् भुवनेषु किन्तु |
कृष्ण स्वयं समभवत् परमः पुमान् यो गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ||

“मैं उन श्रीभगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ जो राम, नृसिंह आदि अवतारों तथा अंशावतारों में नित्य स्थित रहते हुए भी कृष्ण नाम से विख्यात आदि-पुरुष हैं और जो स्वयं भी अवतरित होते हैं |”

वेदों में भी कहा गया है कि अद्वैत होते हुए भी भगवान् असंख्य रूपों में प्रकट होते हैं | वे उस वैदूर्य मणि के समान हैं जो अपना रंग परिवर्तित करते हुए भी एक ही रहता है | इन सारे रूपों को विशुद्ध निष्काम भक्त ही समझ पाते हैं; केवल वेदों के अध्ययन से उनको नहीं समझा जा सकता (वेदेषु दुर्लभ मदुर्लभ मात्म भक्तौ)| अर्जुन जैसे भक्त कृष्ण के नित्य सखा हैं और जब भी भगवान् अवतरित होते हैं तो उनके पार्षद भक्त भी विभिन्न रूपों में उनकी सेवा करने के लिए उनके साथ-साथ अवतार लेते हैं | अर्जुन ऐसा ही भक्त है और इस श्लोक से पता चलता है कि लाखों वर्ष पूर्व जब भगवान् कृष्ण ने भगवद्गीता का प्रवचन सूर्यदेव विवस्वान् से किया था तो उस समय अर्जुन भी किसी भिन्न रूप में उपस्थित थे | किन्तु भगवान् तथा अर्जुन में यह अन्तर है कि भगवान् ने यह घटना याद राखी, किन्तु अर्जुन उसे याद नहीं रख सका | अंशरूप जीवात्मा तथा परमेश्र्वर में यही अन्तर है | यद्यपि अर्जुन को यहाँ परम शक्तिशाली वीर के रूप में सम्भोधित किया गया है, जो शत्रुओं का दमन कर सकता है, किन्तु विगत जन्मों में जो घटनाएँ घटी हैं, उन्हें स्मरण रखने में वह अक्षम है | अतः भौतिक दृष्टि से जीव चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो, वह कभी परमेश्र्वर की समता नहीं कर सकता | भगवान् का नित्य संगी निश्चित रूप से मुक्त पुरुष होता है, किन्तु वह भगवान् के तुल्य नहीं होता | ब्रह्मसंहिता में भगवान् को अच्युत कहा गया जिसका अर्थ होता है कि वे भौतिक सम्पर्क में रहते हुए भी अपने को नहीं भूलते | अतः भगवान् तथा जीव कभी भी सभी तरह से एकसमान नहीं हो सकते, भले ही जीव अर्जुन के समान मुक्त पुरुष क्यों न हो | यद्यपि अर्जुन भगवान् का भक्त है, किन्तु कभी-कभी वह भी भगवान् की प्रकृति को भूल जाता है | किन्तु दैवी कृपा से भक्त तुरन्त भगवान् की अच्युत स्थिति को समझ जाता है जबकि अभक्त या असुर इस दिव्य प्रकृति को नहीं समझ पाटा | फलस्वरूप गीता के विवरण आसुरी मस्तिष्कों में नहीं चढ़ पाते | कृष्ण को लाखों वर्ष पूर्व सम्पन्न कार्यों की स्मृति बनी हुई है किन्तु अर्जुन को स्मरण नहीं है यद्यपि अर्जुन तथा कृष्ण दोनों ही शाश्र्वत स्वभाव के हैं | यहाँ पर हमें यः भी देखने को मिलता है कि शरीर-परिवर्तन के साथ-साथ जीवात्मा सब कुछ भूल जाता है, किन्तु कृष्ण सब स्मरण रखते हैं, क्योंकि वे अपने सच्चिदानन्द शरीर को बदलते नहीं | वे अद्वैत हैं जिसका अर्थ है कि उनके शरीर तथा उनकी आत्मा में कोई अन्तर नहीं है | उनसे सम्बंधित हर वस्तु आत्मा है जबकि बद्धजीव अपने शरीर से भिन्न होता है | चूँकि भगवान् के शरीर और आत्मा अभिन्न हैं, अतः उनकी स्थिति तब भी सामान्य जीव से भिन्न बनी रहती है, जब वे भौतिक स्टार पर अवतार लेते हैं | असुरगण भगवान् की इस दिव्य प्रकृति से तालमेल नहीं बैठा पाते, जिसकी व्याख्या अगले श्लोक में भगवान् स्वयं करते हैं |

मैं हूँ न...

मैं हूँ न. ......

1 फरवरी 2013 को सभी भक्त गंगा के किनारे खड़े नाव की प्रतीक्षा कर रहे हैं, मल्लाह ने बताया वैसे तो 50 लोग बैठ सकते हैं मेरी नाव में, किन्तु सुरक्षा के द्रष्टिकोण से 40 लोगों को ही बैठाया जाय । श्री महाराज जी हँसते हुये बोले, अरे सब बैठ जाओ, 40 हों, 50 हों, "मैं हूँ न " रक्षा करने के लिए ।

एक छोटी सी बच्ची अपने पापा के साथ जा रही थी । एक पुल पर पानी तेजी से बह रहा था । पापा ने कहा- बेटा डरो मत, मेरा हाथ पकड़ लो । बच्ची ने कहा- नहीं पापा आप मेरा हाथ पकड़ लो । पापा ने मुस्कुरा कर कहा- दोनों में क्या फर्क है? बच्ची- अगर में आपका हाथ पकडू और अचानक कुछ हो जाए तो शायद मैं हाथ छोड़ दूंगी । मगर आप मेरा हाथ पकडेंगे तो कुछ भी हो जाए आप मेरा हाथ नहीं छोडेंगे । 

ऐसे ही हमारा हाथ थामे हुए हैं 
हमारे पापा 'कृपालु' महाप्रभु!🙏🙏

Original painting of Mahaprabhu

Original painting of Mahaprabhu as commissioned by Maharaj Pratap Rudra, while in Gambhira, Puri.

दिव्य ज्ञान

अध्याय 4 श्लोक 6

यद्यपि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूँ और यद्यपि मैं समस्त जीवों का स्वामी हूँ, तो भी प्रत्येक युग में मैं अपने आदि दिव्य रूप में प्रकट होता हूँ |

अध्याय 4 : दिव्य ज्ञान
श्लोक 4 . 6

अजोSपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्र्वरोSपि सन् |
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया || ६ ||

अजः – अजन्मा; अपि – तथापि; सन् – होते हुए;अव्यय – अविनाशी; आत्मा – शरीर; भूतानाम् – जन्म लेने वालों के; इश्र्वरः – परमेश्र्वर; अपि – यद्यपि; सन्– होने पर; प्रकृतिम् – दिव्य रूप में; स्वाम् – अपने;अधिष्ठाय – इस तरह स्थित; सम्भवामि – मैं अवतार लेता हूँ; आत्म-मायया – अपनी अन्तरंगा शक्ति से |

भावार्थ

यद्यपि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूँ और यद्यपि मैं समस्त जीवों का स्वामी हूँ, तो भी प्रत्येक युग में मैं अपने आदि दिव्य रूप में प्रकट होता हूँ |

 तात्पर्य

भगवान् ने अपने जन्म की विलक्षणता बतलाई है | यद्यपि वे सामान्य पुरुष की भाँति प्रकट हो सकते हैं, किन्तु उन्हें विगत अनेकानेक “जन्मों” की पूर्ण स्मृति बनी रहती है, जबकि सामान्य पुरुष को कुछ ही घंटे पूर्व की घटना स्मरण नहीं रहती | यदि कोई पूछे कि एक दिन पूर्व इसी समय तुम क्या कर रहे थे, तो सामान्य व्यक्ति के लिए इसका तत्काल उत्तर दे पाना कठिन होगा | उसे उसको स्मरण करने के लिए अपनी बुद्धि को कुरेदना पड़ेगा कि वह कल इसी समय क्या कर रहा था | फिर भी लोग प्रायः अपने को ईश्र्वर या कृष्ण घोषित करते रहते हैं | मनुष्य को ऐसी निरर्थक घोषणाओं से भ्रमित नहीं होना चाहिए | अब भगवान् दुबारा अपनी प्रकृति या स्वरूप की व्याख्या करते हैं | प्रकृति का अर्थ स्वभाव तथा स्वरूप दोनों है | भगवान् कहते हैं कि वे अपने ही शरीर में प्रकट होते हैं | वे सामान्य जीव की भाँति शरीर-परिवर्तन नहीं करते | इस जन्म में बद्धजीव का एक प्रकार का शरीर हो सकता है, किन्तु अगले जन्म में दूसरा शरीर रहता है | भौतिक जगत् में जीव का कोई स्थायी शरीर नहीं है, अपितु वह एक शरीर से दुसरे में देहान्तरण करता रहता है | किन्तु भगवान् ऐसा नहीं करते | जब भी वे प्रकट होते हैं तो अपनी अन्तरंगा शक्ति से वे अपने उसी आद्य शरीर में प्रकट होते हैं | दूसरे शब्दों में, श्रीकृष्ण इस जगत् में अपने आदि शाश्र्वत स्वरूप में दो भुजाओं में बाँसुरी धारण किये अवतरित होते हैं | वे इस भौतिक जगत् से निष्कलुषित रह कर अपने शाश्र्वत शरीर सहित प्रकट होते हैं | यद्यपि वे अपने उसी दिव्य शरीर में प्रकट होते हैं और ब्रह्माण्ड के स्वामी होते हैं तो भी ऐसा लगता है कि वे सामान्य जीव की भाँति प्रकट हो रहे हैं | यद्यपि उनका शरीर भौतिक शरीर की भाँति क्षीण नहीं होता फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान् कृष्ण बालपन से कुमारावस्था तथा कुमारावस्था से तरुणावस्था प्राप्त करते हैं | किन्तु आश्चर्य तो यह है कि वे कभी युवावस्था से आगे नहीं बढ़ते | कुरुक्षेत्र युद्ध के समय उनके अनेक पुत्र थे या दुसरे शब्दों में, वे भौतिक गणना के अनुसार काफी वृद्ध थे | फिर भी वे बीस-पच्चीस वर्ष के युवक जैसे लगते थे | हमें कृष्ण की वृद्धावस्था का कोई चित्र नहीं दिखता, क्योंकि वे कभी भी हमारे समान वृद्ध नहीं होते यद्यपि वे तीनों काल में – भूत, वर्तमान तथा भविष्यकाल में – सबसे वयोवृद्ध पुरुष हैं | न तो उनके शरीर और न ही बुद्धि कभी क्षीण होती या बदलती है | अतः यः स्पष्ट है कि इस जगत् में रहते हुए भी वे उसी अजन्मा सच्चिदा नन्द रूप वाले हैं, जिनके दिव्य शरीर तथा बुद्धि में कोई परिवर्तन नहीं होता | वस्तुतः उनका अविर्भाव और तिरोभाव सूर्य के उदय तथा अस्त के समान है जो हमारे सामने से घूमता हुआ हमारी दृष्टि से ओझल हो जाता है | जब सूर्य हमारी दृष्टि से ओझल रहता है तो हम सोचते हैं कि सूर्य अस्त हो गया है और जब वह हमारे समक्ष होता है तो हम सोचते हैं कि वह क्षितिज में है | वस्तुतः सूर्य स्थिर है, किन्तु अपनी अपूर्ण तथा त्रुटिपूर्ण इन्द्रियों के कारण हम सूर्य को उदय और अस्त होते परिकल्पित करते हैं | और चूँकि भगवान् का प्राकट्य तथा तिरोधान सामान्य जीव से भिन्न हैं अतः स्पष्ट है कि वे शाश्र्वत हैं, अपनी अन्तरंगा शक्ति के कारण आनन्दस्वरूप हैं और इस भौतिक प्रकृति द्वारा कभी कलुषित नहीं होते | वेदों द्वारा भी पुष्टि की जाती है कि भगवान् अजन्मा होकर भी अनेक रूपों में अवतरित होते रहते हैं, किन्तु तो भी वे शरीर-परिवर्तन नहीं करते | श्रीमद्भागवत में वे अपनी माता के समक्ष नारायण रूप में चार भुजाओं तथा षड्ऐश्र्वर्यो से युक्त होकर प्रकट होते हैं | उनका आद्य शाश्र्वत रूप में प्राकट्य उनकी अहैतुकी कृपा है जो जीवों को प्रदान की जाती है जिससे वे भगवान् के यथारूप में अपना ध्यान केन्द्रित कर सकें न कि निर्विशेषवादियों द्वारा मनोधर्म या कल्पनाओं पर आधारित रूप में | विश्र्वकोश के अनुसार माया या आत्म-माया शब्द भगवान् की अहैतुकी कृपा का सूचक है } भगवान् अपने समस्त पूर्व अविर्भाव-तिरोभावों से अवगत रहते हैं, किन्तु सामान्य जीव को जैसे ही नविन शरीर प्राप्त होता है वह अपने पूर्व शरीर के विषय में सब कुछ भूल जाता है | वे समस्त जीवों के स्वामी हैं, क्योंकि इस धरा पर रहते हुए वे आश्चर्य जनक तथा अतिमानवीय लीलाएँ करते रहते हैं | अतः भगवान् निरन्तर वही परमसत्य रूप हैं और उनके स्वरूप तथा आत्मा में या उनके गुण तथा शरीर में कोई अन्तर नहीं होता | अब यः प्रश्न किया जा सकता है कि इस संसार में भगवान् क्यों आविर्भूत और तिरोभूत होते रहते हैं? अगले श्लोक में इसकी व्याख्या की गई है |

रूपध्यान

रूपध्यान करते हुए प्रिया प्रियतम के साथ जिस लीला में जाना चाहो, चले जाओ तथा उनके दिव्य मिलन व दर्शन के लिये अत्यंत तड़पन पैदा करो । लाख आँसू बहाओ, लेकिन किसी भी आँसू को तब तक सच्चा न मानो, जब तक स्वयं श्यामसुंदर आकर उसे अपने पीताम्बर से न पोंछ लें । इतनी व्याकुलता पैदा करो कि नेत्र और प्राणों में बाजी लग जाये । एक-एक पल युग के समान लगने लगे । लेकिन यदि प्राणवल्लभ न आयें तो निराशा न आने पाये, प्रेमास्पद में दोष बुद्धि न आने पाये ।
---- श्री महाराजजी ।
Radhey Radhey

गोविन्द

💞💐💞💐💞💐💞💐
बाँस बना दे मुझको गोविन्द
मुरली बन तेरे कर आऊँ
छूकर अधर तुम्हारे मोहन
राधा जी के मन भाऊँ
सुध बुध खो कर साथ में तेरे, तीन लोक दर्शन पाऊँ
गोकुल की मैं खाली मटकी, भजनों से तेरे भर जाऊँ
💞💐💞💐💞💐💞💐
जय श्री कृष्णा

दिव्य ज्ञान

अध्याय 4 श्लोक 6

यद्यपि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूँ और यद्यपि मैं समस्त जीवों का स्वामी हूँ, तो भी प्रत्येक युग में मैं अपने आदि दिव्य रूप में प्रकट होता हूँ |

अध्याय 4 : दिव्य ज्ञान

श्लोक 4 . 6

अजोSपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्र्वरोSपि सन् |
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया || ६ ||

अजः – अजन्मा; अपि – तथापि; सन् – होते हुए;अव्यय – अविनाशी; आत्मा – शरीर; भूतानाम् – जन्म लेने वालों के; इश्र्वरः – परमेश्र्वर; अपि – यद्यपि; सन्– होने पर; प्रकृतिम् – दिव्य रूप में; स्वाम् – अपने;अधिष्ठाय – इस तरह स्थित; सम्भवामि – मैं अवतार लेता हूँ; आत्म-मायया – अपनी अन्तरंगा शक्ति से |

भावार्थ

यद्यपि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूँ और यद्यपि मैं समस्त जीवों का स्वामी हूँ, तो भी प्रत्येक युग में मैं अपने आदि दिव्य रूप में प्रकट होता हूँ |

 तात्पर्य

भगवान् ने अपने जन्म की विलक्षणता बतलाई है | यद्यपि वे सामान्य पुरुष की भाँति प्रकट हो सकते हैं, किन्तु उन्हें विगत अनेकानेक “जन्मों” की पूर्ण स्मृति बनी रहती है, जबकि सामान्य पुरुष को कुछ ही घंटे पूर्व की घटना स्मरण नहीं रहती | यदि कोई पूछे कि एक दिन पूर्व इसी समय तुम क्या कर रहे थे, तो सामान्य व्यक्ति के लिए इसका तत्काल उत्तर दे पाना कठिन होगा | उसे उसको स्मरण करने के लिए अपनी बुद्धि को कुरेदना पड़ेगा कि वह कल इसी समय क्या कर रहा था | फिर भी लोग प्रायः अपने को ईश्र्वर या कृष्ण घोषित करते रहते हैं | मनुष्य को ऐसी निरर्थक घोषणाओं से भ्रमित नहीं होना चाहिए | अब भगवान् दुबारा अपनी प्रकृति या स्वरूप की व्याख्या करते हैं | प्रकृति का अर्थ स्वभाव तथा स्वरूप दोनों है | भगवान् कहते हैं कि वे अपने ही शरीर में प्रकट होते हैं | वे सामान्य जीव की भाँति शरीर-परिवर्तन नहीं करते | इस जन्म में बद्धजीव का एक प्रकार का शरीर हो सकता है, किन्तु अगले जन्म में दूसरा शरीर रहता है | भौतिक जगत् में जीव का कोई स्थायी शरीर नहीं है, अपितु वह एक शरीर से दुसरे में देहान्तरण करता रहता है | किन्तु भगवान् ऐसा नहीं करते | जब भी वे प्रकट होते हैं तो अपनी अन्तरंगा शक्ति से वे अपने उसी आद्य शरीर में प्रकट होते हैं | दूसरे शब्दों में, श्रीकृष्ण इस जगत् में अपने आदि शाश्र्वत स्वरूप में दो भुजाओं में बाँसुरी धारण किये अवतरित होते हैं | वे इस भौतिक जगत् से निष्कलुषित रह कर अपने शाश्र्वत शरीर सहित प्रकट होते हैं | यद्यपि वे अपने उसी दिव्य शरीर में प्रकट होते हैं और ब्रह्माण्ड के स्वामी होते हैं तो भी ऐसा लगता है कि वे सामान्य जीव की भाँति प्रकट हो रहे हैं | यद्यपि उनका शरीर भौतिक शरीर की भाँति क्षीण नहीं होता फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान् कृष्ण बालपन से कुमारावस्था तथा कुमारावस्था से तरुणावस्था प्राप्त करते हैं | किन्तु आश्चर्य तो यह है कि वे कभी युवावस्था से आगे नहीं बढ़ते | कुरुक्षेत्र युद्ध के समय उनके अनेक पुत्र थे या दुसरे शब्दों में, वे भौतिक गणना के अनुसार काफी वृद्ध थे | फिर भी वे बीस-पच्चीस वर्ष के युवक जैसे लगते थे | हमें कृष्ण की वृद्धावस्था का कोई चित्र नहीं दिखता, क्योंकि वे कभी भी हमारे समान वृद्ध नहीं होते यद्यपि वे तीनों काल में – भूत, वर्तमान तथा भविष्यकाल में – सबसे वयोवृद्ध पुरुष हैं | न तो उनके शरीर और न ही बुद्धि कभी क्षीण होती या बदलती है | अतः यः स्पष्ट है कि इस जगत् में रहते हुए भी वे उसी अजन्मा सच्चिदा नन्द रूप वाले हैं, जिनके दिव्य शरीर तथा बुद्धि में कोई परिवर्तन नहीं होता | वस्तुतः उनका अविर्भाव और तिरोभाव सूर्य के उदय तथा अस्त के समान है जो हमारे सामने से घूमता हुआ हमारी दृष्टि से ओझल हो जाता है | जब सूर्य हमारी दृष्टि से ओझल रहता है तो हम सोचते हैं कि सूर्य अस्त हो गया है और जब वह हमारे समक्ष होता है तो हम सोचते हैं कि वह क्षितिज में है | वस्तुतः सूर्य स्थिर है, किन्तु अपनी अपूर्ण तथा त्रुटिपूर्ण इन्द्रियों के कारण हम सूर्य को उदय और अस्त होते परिकल्पित करते हैं | और चूँकि भगवान् का प्राकट्य तथा तिरोधान सामान्य जीव से भिन्न हैं अतः स्पष्ट है कि वे शाश्र्वत हैं, अपनी अन्तरंगा शक्ति के कारण आनन्दस्वरूप हैं और इस भौतिक प्रकृति द्वारा कभी कलुषित नहीं होते | वेदों द्वारा भी पुष्टि की जाती है कि भगवान् अजन्मा होकर भी अनेक रूपों में अवतरित होते रहते हैं, किन्तु तो भी वे शरीर-परिवर्तन नहीं करते | श्रीमद्भागवत में वे अपनी माता के समक्ष नारायण रूप में चार भुजाओं तथा षड्ऐश्र्वर्यो से युक्त होकर प्रकट होते हैं | उनका आद्य शाश्र्वत रूप में प्राकट्य उनकी अहैतुकी कृपा है जो जीवों को प्रदान की जाती है जिससे वे भगवान् के यथारूप में अपना ध्यान केन्द्रित कर सकें न कि निर्विशेषवादियों द्वारा मनोधर्म या कल्पनाओं पर आधारित रूप में | विश्र्वकोश के अनुसार माया या आत्म-माया शब्द भगवान् की अहैतुकी कृपा का सूचक है } भगवान् अपने समस्त पूर्व अविर्भाव-तिरोभावों से अवगत रहते हैं, किन्तु सामान्य जीव को जैसे ही नविन शरीर प्राप्त होता है वह अपने पूर्व शरीर के विषय में सब कुछ भूल जाता है | वे समस्त जीवों के स्वामी हैं, क्योंकि इस धरा पर रहते हुए वे आश्चर्य जनक तथा अतिमानवीय लीलाएँ करते रहते हैं | अतः भगवान् निरन्तर वही परमसत्य रूप हैं और उनके स्वरूप तथा आत्मा में या उनके गुण तथा शरीर में कोई अन्तर नहीं होता | अब यः प्रश्न किया जा सकता है कि इस संसार में भगवान् क्यों आविर्भूत और तिरोभूत होते रहते हैं? अगले श्लोक में इसकी व्याख्या की गई है |

ईश्वरीय गुण

एक वाक्य तुम लोग आपस में सहन नहीं कर सकते । क्या चीज़ है तुम लोगों के पास अहंकार की, जो सहन नहीं कर सकते किसी ने एक वाक्य कहा भी तो चुप हो जाओ, ऐ तुरन्त जबाब । इससे कितना नुकसान हो रहा है तुम लोगों का सोचो, ऐसे ही नुकसान करते जाओगे एक दिन मर जाओगे और कहोगे कि ओ जगद्गुरु कृपालु जी महाराज हमारे गुरु थे और राधारानी का दरबार भी हमको मिला था, और हमने लापरवाही से अपना भविष्य नहीं बनाया, अपना बिगाड़ा कर लिया तो ये आपस में द्वेष करना, दूसरे को दुःखी करना सबसे बड़ा पाप कहा गया है दूसरे को दुःखी करना, ये जानते हुये की सबके हृदय में श्यामसुन्दर बैठे हैं और फिर अपराध करते हो । हम अपनी सहनशीलता को बढावे, दीनता को बढ़ावे, नम्रता को बढ़ावे ये गुण हैं, ईश्वरीय ।

श्री महाराज जी. ..
🙏 Radhey Radhey 🙏

गोपी की हर क्रिया में कृष्ण है।

💐एक गोपी यमुना किनारे बैठी प्राणायाम कर रही थी। 

♻तभी वहां नारद जी वीणा बजाते हुए आये। नारद जी बड़े ध्यान से देखने लगे। 'गोपी कर क्या रही है? क्योकि व्रज में कोई ध्यान लगाये ये बात उन्हें हजम ही नहीं हो रही थी।' 

💐बहुत देर तक विचार करते रहने पर भी उन्हें समझ नहीं आया तो वे गोपी के और निकट गए और गोपी से बोले,"देवी! ये आप क्या कर रही है ? 

♻बहुत देर तक विचार करने पर भी मुझे समझ नहीं आ रहा क्योंकि व्रज में कोई ध्यान लगाये, वो भी इस तरह प्राणायाम आदि नियमों सहित ऐसा तो व्रज में कभी सुना नहीं। फिर ऐसा क्या हो गया कि आपको ध्यान लगाने की आवश्यकता पड़ गई?"

💐गोपी बोली,"नारद जी! मै जब भी कोई काम करती हूं ,तो कर नहीं पाती। हर समय वो नंद का छोरा आंखों में बसा रहता है। 

♻घर लीपती हूं तो गोवर में वही दिखता है। लीपना तो वही छूट जाता है और कृष्ण के ध्यान में ही डूब जाती हूं। रोटी बनाती हूं तो जैसे ही आटा गूदती हूं, तो नरम-नरम आटा में कृष्ण के कोमल चरणों का आभास होता है। आटा तो वैसा ही रखा रह जाता है और में कृष्ण की याद में खो जाती हूं।

💐कहां तक बताऊ नारद जी--'जल भरने यमुना जी जाती हूं तो यमुना जी में,जल की गागर में, रास्ते में, हर कहीं नंदलाला ही दिखायी देते हैं।'

♻मै इतना परेशान हो गई हूं कि कृष्ण को ध्यान से निकालने के लिए ध्यान लगाने बैठी हूं।"

💐हमें तो भगवान को याद करना पड़ता है। भगवान को याद करने के लिए ध्यान लगाना पड़ता है और गोपी को ध्यान से निकलने के लिए ध्यान में बैठना पड़ता है। 

♻गोपी की हर क्रिया में कृष्ण है। गोपी ने अपने ह्रदय में केवल कृष्ण को बैठा रखा है और हमने ?

     तेरे पास में बैठना भी इबादत,
    तुझे दूर से देखना भी इबादत। 
    न माला,न मंतर,न पूजा,न सजदा,
    तुझे हर घड़ी सोचना भी इबादत।

 ॥श्री राधारमणाय समर्पणं॥🙏

दिव्य ज्ञान

अध्याय 4 श्लोक 7
हे भारतवंशी! जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है, तब तब मैं अवतार लेता हूँ |

अध्याय 4 : दिव्य ज्ञान

श्लोक 4 . 7

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत |
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् || ७ ||

यदा यदा – जब भी और जहाँ भी; हि – निश्चय ही;धर्मस्य – धर्म की; ग्लानिः – हानि, पतन; भवति – होती है; भारत – हे भारतवंशी; अभ्युत्थानम् – प्रधानता; अधर्मस्य – अधर्म की; तदा – उस समय;आत्मानम् – अपने को; सृजामि – प्रकट करता हूँ;अहम् – मैं |

भावार्थ

हे भारतवंशी! जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है, तब तब मैं अवतार लेता हूँ |

 तात्पर्य

यहाँ पर सृजामि शब्द महत्त्वपूर्ण है | सृजामि सृष्टि के अर्थ में नहीं प्रयुक्त हो सकता, क्योंकि पिछले श्लोक के अनुसार भगवान् के स्वरूप या शरीर की सृष्टि नहीं होती, क्योंकि उनके सारे स्वरूप शाश्र्वत रूप से विद्यमान रहने वाले हैं | अतः सृजामि का अर्थ है कि भगवान् स्वयं यथारूप प्रकट होते हैं | यद्यपि भगवान् कार्यक्रमअनुसार अर्थात् ब्रह्मा के एक दिन में सातवें मनु के २८ वें युग में द्वापर के अन्त में प्रकट होते हैं, किन्तु वे इस समय का पालन करने के लिए बाध्य नहीं हैं, क्योंकि वे स्वेच्छा से कर्म करने के लिए स्वतन्त्र हैं | अतः जब भी अधर्म की प्रधानता तथा धर्म का लोप होने लगता है, तो वे स्वेच्छा से प्रकट होते हैं | धर्म के नियम वेदों में दिये हुए हैं और यदि इन नियमों के पालन में कोई तत्रुटि आती है तो मनुष्य अधार्मिक हो जाता है | श्रीमद्भागवत में बताया गया है कि ऐसे नियम भगवान् के नियम हैं | केवल भगवान् ही किसी धर्म की व्यवस्था कर सकते हैं | वेद भी मूलतः ब्रह्मा के हृदय में से भगवान् द्वारा उच्चारित माने जाते हैं | अतः धर्म के नियम भगवान् के प्रत्यक्ष आदेश हैं (धर्मं तु सा क्षा द् भगवत् प्रणीत म् ) | भगवद्गीता में आद्योपान्त इन्हीं नियमों का संकेत है | वेदों का उद्देश्य परमेश्र्वर के आदेशानुसार ऐसे नियमों की स्थापना करना है और गीता के अन्त में भगवान् स्वयं आदेश देते हैं कि सर्वोच्च धर्म उनकी ही शरण ग्रहण करना है |वैदिक नियम जीव को पूर्ण शरणागति की ओर अग्रसर कराने वाले हैं और जब भी असुरों द्वारा इन नियमों में व्यावधान आता है तभी भगवान् प्रकट होते हैं | श्रीमद्भागवत पुराण से हम जानते हैं की बुद्ध कृष्ण के अवतार हैं, जिनका प्रादुर्भाव उस समय हुआ जब भौतिकतावादी का बोलबाला था और भौतिकतावादी लोग वेदों को प्रमाण बनाकर उसकी आड़ ले रहे थे | भगवान् बुद्ध इस अनाचार को रोकने तथा अहिंसा के वैदिक नियमों की स्थापना करने के लिए अवतरित हुए | अतः भगवान् के प्रत्येक अवतार का विशेष उद्देश्य होता है और इन सबका वर्णन शास्त्रों में हुआ है | यह तथ्य नहीं है कि केवल भारत की धरती में भगवान् अवतरित होते हैं | वे कहीं भी और किसी भी काल में इच्छा होने पर प्रकट हो सकते हैं | वे प्रत्येक अवतार लेने पर धर्म के विषय में उतना ही कहते हैं, जितना कि उस परिस्थिति में जन-समुदाय विशेष समझ सकता है | लेकिन उद्देश्य एक ही रहता है – लोगों को ईश भावना भावित करना तथा धार्मिक नियमों के प्रति आज्ञाकारी बनाना | कभी वे स्वयं प्रकट होते हैं तो कभी अपने प्रामाणिक प्रतिनिधि को अपने पुत्र या दास के रूप में भेजते हैं, या वेश बदल कर स्वयं ही प्रकट होते हैं |

भगवद्गीता के सिद्धान्त अर्जुन से कहे गये थे,अतः वे किसी भी महापुरुष के प्रति हो सकते थेम क्योंकि अर्जुन संसार के अन्य भागों के सामान्य पुरुषों की अपेक्षा अधिक जागरूक था | दो और दो मिलाकर चार होते हैं, यह गणितीय नियम प्राथमिक कक्षा के विद्यार्थी के लिए उतना ही सत्य है, जितना कि उच्च कक्षा के विद्यार्थी के लिए | तो भी गणित उच्चस्तर तथा निम्नस्तर का होता है | अतः भगवान् प्रत्येक अवतार में एक-जैसे सिद्धान्तों की शिक्षा देते हैं, जो परिस्थितियों के अनुसार उच्च या निम्न प्रतीत होता हैं | जैसा कि आगे बताया जाएगा धर्म के उच्चतर सिद्धान्त चारों वर्णाश्रमों को स्वीकार करने से प्रारम्भ होते हैं | अवतारों का एकमात्र उद्देश्य सर्वत्र कृष्ण भावना मृत को उद्बोधित करना है | परिस्थिति के अनुसार यह भावनामृत प्रकट तथा अप्रकट होता है |

दिव्य ज्ञान

अध्याय 4 श्लोक 8

भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |

अध्याय 4 : दिव्य ज्ञान
श्लोक 4 . 8

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे || ८ ||

परित्राणाय – उद्धार के लिए; साधूनाम् – भक्तों के;विनाशाय – संहार के लिए; च – तथा; दुष्कृताम् – दुष्टों के; धर्म – धर्म के; संस्थापन-अर्थाय – पुनः स्थापित करने के लिए; सम्भवामि – प्रकट होता हूँ; युगे – युग;युगे – युग में |

भावार्थ

भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |

 तात्पर्य

भगवद्गीता के अनुसार साधु (पवित्र पुरुष) कृष्णभावनाभावित व्यक्ति है | अधार्मिक लगने वाले व्यक्ति में यदि पूर्ण कृष्णचेतना हो, तो उसे साधु समझना चाहिए | दुष्कृताम् उन व्यक्तियों के लिए आया है जो कृष्णभावनामृत की परवाह नहीं करते | ऐसे दुष्कृताम् या उपद्रवी, मुर्ख तथा अधम व्यक्ति कहलाते हैं, भले ही वे सांसारिक शिक्षा से विभूषित क्यों न हो | इसके विपरीत यदि कोई शत-प्रतिशत कृष्णभावनामृत में लगा रहता है तो वह विद्वान् या सुसंस्कृत न भी हो फिर भी वह साधु माना जाता है | जहाँ तक अनीश्र्ववादियों का प्रश्न है, भगवान् के लिए आवश्यक नहीं कि वे इनके विनाश के लिए उस रूप में अवतरित हों जिस रूप में वे रावन तथा कंस का वध करने के लिए हुए थे | भगवान् के ऐसे अनेक अनुचर हैं जो असुरों का संहार करने में सक्षम हैं | किन्तु भगवान् तो अपने उन निष्काम भक्तों को तुष्ट करने के लिए विशेष रूप से अवतार लेते हैं जो असुरों द्वारा निरन्तर तंग किये जाते हैं | असुर भक्त को तंग करता है, भले ही वह उसका सगा-सम्बन्धी क्यों न हो | यद्यपि प्रह्लाद् महाराज हिरण्यकशीपु के पुत्र थे, किन्तु तो भी वे अपने पिता द्वारा उत्पीड़ित थे | इसी प्रकार कृष्ण की माता देवकी यद्यपि कंस की बहन थीं, किन्तु उन्हें तथा उनके पति वासुदेव को इसीलिए दण्डित किया गया था क्योंकि उनसे कृष्ण को जन्म लेना था | अतः भगवान् कृष्ण मुख्यतः देवकी के उद्धार करने के लिए प्रकट हुए थे, कंस को मारने के लिए नहीं | किन्तु ये दोनों कार्य एकसाथ सम्पन्न हो गये | अतः यह कहा जाता है कि भगवान् भक्त का उद्धार करने तथा दुष्ट असुरों का संहार करने के लिए विभिन्न अवतार लेते हैं |

कृष्णदास कविराज कृत चैतन्य चरितामृत के निम्नलिखित श्लोकों (मध्य २०.२६३-२६४) से अवतार के सिद्धान्तों का सारांश प्रकट होता है –

सृष्टिहेतु एइ मूर्ति प्रपञ्चे अवतरे |
सेइ ईश्र्वरमूर्ति ‘अवतार’ नाम धरे ||
मायातीत परव्योमे सबार अवस्थान |
विश्र्वे अवतरी’ धरे ‘अवतार’ नाम ||

“अवतार अथवा ईश्र्वर का अवतार भगवद्धाम से भौतिक प्राक्ट्य हेतु होता है | ईश्र्वर का वह विशिष्ट रूप जो इस प्रकार अवतरित होता है अवतार कहलाता है | ऐसे अवतार भगवद्धाम में स्थित रहते हैं | जब यह भौतिक सृष्टि में उतरते हैं, तो उन्हें अवतार कहा जाता है |”

अवतार इसी तरह के होते हैं तथा पुरुषावतार, गुणावतार, लीलावतार, शक्त्यावेश अवतार, मन्वन्तर अवतार तथा युगावतार – इस सबका इस ब्रह्माण्ड में क्रमानुसार अवतरण होता है | किन्तु भगवान कृष्ण आदि भगवान् हैं और समस्त अवतारों के उद्गम हैं | भगवान् श्रीकृष्ण शुद्ध भक्तों की चिन्ताओं को दूर करने के विशिष्ट प्रयोजन से अवतार लेते हैं, जो उन्हें उनकी मूल वृन्दावन लीलाओं के रूप में देखने के उत्सुक रहते हैं | अतः कृष्ण अवतार का मूल उद्देश्य अपने निष्काम भक्तों को प्रसन्न करना है |

भगवान् का वचन है कि वे प्रत्येक युग में अवतरित होते रहते हैं | इससे सूचित होता है कि वे कलियुग में भी अवतार लेते हैं | जैसा कि श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि कलियुग के अवतार भगवान् चैतन्य महाप्रभु हैं जिन्होंने संकीर्तन आन्दोलन के द्वारा कृष्णपूजा का प्रसार किया और पूरे भारत में कृष्णभावनामृत का विस्तार किया | उन्होंने यः भविष्यवाणी की कि संकीर्तन की यह संस्कृति सारे विश्र्व के नगर-नगर तथा ग्राम-ग्राम में फैलेगी | भगवान् चैतन्य को गुप्त रूप में, किन्तु प्रकट रूप में नहीं, उपनिषदों, महाभारत तथा भागवत जैसे शास्त्रों के गुह्य अंशों में वर्णित किया गया है | भगवान् कृष्ण के भक्तगण भगवान् चैतन्य के संकीर्तन आन्दोलन द्वारा अत्यधिक आकर्षित रहते हैं | भगवान् का यह अवतार दुष्टों का विनाश नहीं करता, अपितु अपनी अहैतुकी कृपा से उनका उद्धार करता है |

दिव्य ज्ञान

अध्याय 4 श्लोक 9
हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है |

अध्याय 4 : दिव्य ज्ञान
श्लोक 4 . 9

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः |
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोSर्जुन || ९ ||

जन्म – जन्म; कर्म – कर्म; च – भी; मे – मेरे; दिव्यम्– दिव्य; एवम् – इस प्रकार; यः – जो कोई; वेत्ति – जानता है; तत्त्वतः – वास्तविकता में; त्यक्त्वा – छोड़कर; देहम् – इस शरीर को; पुनः – फिर; जन्म – जन्म; न – कभी नहीं; एति – प्राप्त करता है; माम् – मुझको; एति – प्राप्त करता है; सः – वह; अर्जुन – हे अर्जुन |

भावार्थ

हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है |

 तात्पर्य

छठे श्लोक में भगवान् के दिव्यधाम से उनके अवतरण की व्याख्या हो चुकी है | जो मनुष्य भगवान् के अविर्भाव के सत्य को समझ लेता है वह इस भवबन्धन से मुक्त हो जाता है और इस शरीर को छोड़ते ही वह तुरन्त भगवान् के धाम को लौट जाता है | भवबन्धन से जीव की ऐसी मुक्ति सरल नहीं है | निर्विशेषवादी तथा योगीजन पर्याप्त कष्ट तथा अनेकानेक जन्मों के बाद ही मुक्ति प्राप्त कर पाते हैं | इतने पर भी उन्हें जो मुक्ति भगवान् की निराकार ब्रह्मज्योति में तादात्म्य प्राप्त करने के रूप में मिलती है, वह आंशिक होती है और इस भौतिक संसार में लौट जाने का भय बना रहता है | किन्तु भगवान् के शरीर की दिव्य प्रकृति तथा उनके कार्यकलापों को समझने मात्र से भक्त इस शरीर का अन्त होने पर भगवद्धाम को प्राप्त करता है और उसे इस संसार में लौट आने का भय नहीं रह सकता | ब्रह्मसंहिता में (५.३३) यह बताया गया है कि भगवान् के अनेक रूप तथा अवतार हैं – अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूपम् | यद्यपि भगवान् के अनेक दिव्य रूप हैं, किन्तु फिर भी वे अद्वय भगवान् हैं | इस तथ्य को विश्र्वासपूर्वक समझना चाहिए, यद्यपि यः संसारी विद्वानों तथा ज्ञानयोगियों के लिए अगम्य है | जैसा कि वेदों (पुरुष बोधिनी उपनिषद्) में कहा गया है –

एको देवो नित्यलीलानुरक्तो भक्तव्यापी हृद्यन्तरात्मा ||

“एक भगवान् अपने निष्काम भक्तों के साथ अनेकानेक दिव्य रूपों में सदैव सम्बन्धित हैं |” इस वेदवचन की स्वयं भगवान् ने गीता के इस श्लोक में पुष्टि की है | जो इस सत्य को वेद तथा भगवान् के प्रमाण के आधार पर स्वीकार करता है और शुष्क चिन्तन में समय नहीं गँवाता वह मुक्ति की चरम सिद्धि प्राप्त करता है | इस सत्य को श्रद्धापूर्वक स्वीकार करने से मनुष्य निश्चित रूप से मुक्ति-लाभ कर सकता है | इस प्रसंग में वैदिक वाक्य तत्त्व मसि लागू होता है | जो कोई भगवान् कृष्ण को परब्रह्म करके जानता है या उनसे यह कहता है कि “आप वही परब्रह्म श्रीभगवान् हैं” वह निश्चित रूप से अविलम्ब मुक्त हो जाता है, फलस्वरूप उसे भगवान् की दिव्यसंगति की प्राप्ति निश्चित हो जाती है | दुसरे शब्दों में, ऐसा श्रद्धालु भगवद्भक्त सिद्धि प्राप्त करता है |
इसकी पुष्टि निम्नलिखित वेदवचन से होती है –

तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेSय नाय |

“श्री भगवान् को जान लेने से ही मनुष्य जन्म तथा मृत्यु से मुक्ति की पूर्ण अवस्था प्राप्त कर सकता है | इस सिद्धि को प्राप्त करने का कोई अन्य विकल्प नहीं है |”(श्र्वेताश्र्वतर उपनिषद् ३.८) इसका कोई विकल्प नहीं है का अर्थ यही है कि जो श्रीकृष्ण को श्री भगवान् के रूप में नहीं मानता वह अवश्य ही तमोगुणी है और मधुपात्र को केवल बाहर से चाटकर या भगवद्गीता की विद्वता पूर्ण संसारी विवेचना करके मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता | इसे शुष्क दार्शनिक भौतिक जगत् में महत्त्व पूर्ण भूमिका निभाने वाले हो सकते हैं, किन्तु वे मुक्ति के अधिकारी नहीं होते | ऐसे अभिमानी संसारी विद्वानों को भगवद् भक्त की अहैतुकी कृपा की प्रतीक्षा करनी पड़ती है | अतः मनुष्य को चाहिए कि श्रद्धा तथा ज्ञान के साथ कृष्ण भावना मृत का अनुशीलन करे और सिद्धि प्राप्त करने का यही उपाय है |

सुख दुख नहिं संसार

सुनो मन ! सुख दुख नहिं संसार|सुख वादी कर प्यार जगत सों, दुखवादी कर खार |जो सुख होत जगत तो कोउ तो, पावत करिय विचार |जो दुख होत रहत कत संतन, सदा सुखी इकसार |जोइ असीम सोइ सुख जोइ सीमित, सोइ दुख यह उर धार |कह ‘कृपालु’ मन सुन सुख पर कहुँ, होत न दुख अधिकार ||

भावार्थ – अरे मन ! सुन, संसारमें सुख एवं दु:ख दोनों ही नहीं है | संसार में सुख मानने वाले संसार से ही प्यार करते हैं क्योंकि सुख प्राप्ति जीव का स्वाभाविक स्वभाव है |

 और इसी कारण संसार में दु:ख मानने वालों को संसार से शत्रुता हो जातीहै, क्योंकि वह आत्मा के स्वभाव के विपरीत है | अर्थात् कोई भी जीवात्मा दु:ख से प्यार नहीं करती | 

अरे मन ! यदि संसार में कहीं सुख होता तो कभी तो किसी को तो प्राप्त हुआ होता ? इसी प्रकार संसार में दु:ख होता तो परमानन्द प्राप्त संतों को भी कहीं तो कभी तो दु:ख मिलता ? अतएव संसार में न सुखहै न दु:ख है | 

इसके अतिरिक्तएक बात यह भी है कि जो अनन्त मात्रा का होता है वही सुख है | संसार का सुख सीमित है; अतएव वह सुख हो ही नहीं सकता| 

’श्री कृपालु जी’ कहते हैं, अरे मन ! एक बात और है, वह यह कि सुख के ऊपर दु:ख का अधिकारकथमपि नहीं हो सकता | इसलियेसिद्ध हुआ कि संसार में सुख तथा दु:ख दोनों ही नहीं है |

( प्रेम रस मदिरा सिद्धान्त -माधुरी )

दिव्य ज्ञान

अध्याय 4 श्लोक 10
आसक्ति, भय तथा क्रोध से मुक्त होकर, मुझमें पूर्णतया तन्मय होकर और मेरी शरण में आकर बहुत से व्यक्ति भूत काल में मेरे ज्ञान से पवित्र हो चुके हैं | इस प्रकार से उन सबों ने मेरे प्रति दिव्यप्रेम को प्राप्त किया है |

अध्याय 4 : दिव्य ज्ञान
श्लोक 4 . 10
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः |
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः || १० ||

वीत – मुक्त; राग – आसक्ति; भय – भय; क्रोधाः – तथा क्रोध से; मत्-मया – पूर्णतया मुझमें; माम् – मुझमें; उपाश्रिताः – पूर्णतया स्थित; बहवः – अनेक;ज्ञान – ज्ञान की; तपसा – तपस्या से; पूताः – पवित्र हुआ; मत्-भावम् – मेरे प्रति दिव्य प्रेम को; आगताः – प्राप्त |
भावार्थ

आसक्ति, भय तथा क्रोध से मुक्त होकर, मुझमें पूर्णतया तन्मय होकर और मेरी शरण में आकर बहुत से व्यक्ति भूत काल में मेरे ज्ञान से पवित्र हो चुके हैं | इस प्रकार से उन सबों ने मेरे प्रति दिव्यप्रेम को प्राप्त किया है |

 तात्पर्य

जैसा कि पहले कहा जा चुका है विषयों में आसक्त व्यक्ति के लिए परमसत्य के स्वरूप को समझ पाना अत्यन्त कठिन है | सामान्यतया जो लोग देहात्मबुद्धि में आसक्त होते हैं, वे भौतिकतावाद में इतने लीन रहते हैं कि उनके लिए यह समझ पाना असम्भव सा है कि परमात्मा व्यक्ति भी हो सकता है | ऐसे भौतिकतावादी व्यक्ति इसकी कल्पना तक नहीं कर पाते कि ऐसा भी दिव्य शरीर है जो नित्य तथा सच्चिदा नन्दमय है | भौतिकतावादी धारणा के अनुसार शरीर नाशवान्, अज्ञानमय तथा अत्यन्त दुखमय होता है | अतः जब लोगों को भगवान् के साकार रूप के विषय में बताया जाता है तो उनके मन में शरीर की यही धारणा बनी रहती है | ऐसे भौतिकतावादी पुरुषों के लिए विराट भौतिक जगत् का स्वरूप ही परमतत्त्व है | फलस्वरूप वे परमेश्र्वर को निराकार मानते हैं और भौतिकता में इतने तल्लीन रहते हैं कि भौतिक पदार्थ से मुक्ति के बाद भी अपना स्वरूप बनाये रखने के विचार से डरते हैं | जब उन्हें यह बताया जाता है कि आध्यात्मिक जीवन भी व्यक्तिगत तथा साकार होता है तो वे पुनः व्यक्ति बनने से भयभीत हो उठते हैं, फलतः वे निराकार शून्य में तदाकार होना पसंद करते हैं | सामान्यतया वे जीवों की तुलना समुद्र के बुलबुलों से करते हैं, जो टूटने पर समुद्र में ही लीन हो जाते हैं | पृथक् व्यक्तित्व से रहित आध्यात्मिक जीवन की यः चरम सिद्धि है | यः जीवन की भयावह अवस्था है, जो आध्यात्मिक जीवन के पूर्णज्ञान से रहित है | इसके अतिरिक्त ऐसे बहुत से मनुष्य हैं जो आध्यात्मिक जीवन को तनिक भी नहीं समझ पाते | अनेक वादों तथा दार्शनिक चिन्तन की विविध विसंगतियों से परेशान होकर वे उब उठते हैं या क्रुद्ध हो जाते हैं और मूर्खतावश यः निष्कर्ष निकालते हैं कि परम कारण जैसा कुछ नहीं है, अतः प्रत्येक वस्तु अन्ततोगत्वा शून्य है | ऐसे लोग जीवन की रुग्णावस्था में होते हैं | कुछ लोग भौतिकता में इतने आसक्त रहते हैं कि वे आध्यात्मिक जीवन की ओर कोई ध्यान नहीं देते और कुछ लोग तो निराशावश सभी प्रकार के आध्यात्मिक चिन्तनों से क्रुद्ध होकर प्रत्येक वस्तु पर अविश्र्वास करने लगते हैं | इस अन्तिम कोटि के लोग किसी न किसी मादक वस्तु का सहारा लेते हैं और उनके मति-विभ्रम को कभी-कभी आध्यात्मिक दृष्टि मान लिया जाता है | मनुष्य को भौतिक जगत् के प्रति आसक्ति की तीनों अवस्थाओं से छुटकारा पाना होता है – ये हैं आध्यात्मिक जीवन की अपेक्षा, आध्यात्मिक साकार रूप का भय तथा जीवन की हताशा से उत्पन्न शून्यवाद की कल्पना | जीवन की इन तीनों अवस्थाओं से छुटकारा पाने के लिए प्रामाणिक गुरु के निर्देशन में भगवान् की शरण ग्रहण करना और भक्तिमय जीवन के नियम तथा विधि-विधानों का पालन करना आवश्यक है | भक्तिमय जीवन की अन्तिम अवस्था भाव या दिव्य इश्र्वरीय प्रेम कहलाती है |
भक्तिरसामृतसिन्धु (१.४.१५-१६) के अनुसार भक्ति का विज्ञान इस प्रकार है –

आदौ श्रद्धा ततः साधुसंगोSथ भजनक्रिया 
ततोSनर्थनिवृत्तिः स्यात्ततो निष्ठा रूचिस्ततः |
अथासक्तिस्ततो भावस्ततः प्रेमाभ्यदञ्चति 
साधकानामयं प्रेम्णः प्रादुर्भावे भवेत्क्रमः ||

“प्रारम्भ में आत्म-साक्षात्कार की समान्य इच्छा होनी चाहिए | इससे मनुष्य ऐसे व्यक्तियों की संगति करने का प्रयास करता है जो आध्यात्मिक दृष्टि से उठे हुए हैं | अगली अवस्था में गुरु से दीक्षित होकर नवदीक्षित भक्त उसके आदेशानुसार भक्तियोग प्रारम्भ करता है | इस प्रकार सद्गुरु के निर्देश में भक्ति करते हुए वह समस्त भौतिक आसक्ति से मुक्त हो जाता है, उसके आत्म-साक्षात्कार में स्थिरता आती है और वह श्रीभगवान् कृष्ण के विषय में श्रवण करने के लिए रूचि विकसित करता है | इस रूचि से आगे चलकर कृष्णभावनामृत में आसक्ति उत्पन्न होती है जो भाव में अथवा भगवत्प्रेम के प्रथम सोपान में परिपक्व होती है | ईश्र्वर के प्रति प्रेम ही जीवन की सार्थकता है |” प्रेम-अवस्था में भक्त भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में निरन्तर लीन रहता है | अतः भक्ति और समस्त की मन्द स्थिति से प्रामाणिक गुरु के निर्देश में सर्वोच्च अवस्था प्राप्त की जा सकती है और समस्त भौतिक आसक्ति, व्यक्तिगत आध्यात्मिक स्वरूप के भय तथा शून्यवाद से उत्पन्न हताशा से मुक्त हुआ जा सकता है | तभी मनुष्य को अन्त में भगवान् के धाम की प्राप्ति ओ सकती है |

Monday, 16 February 2015

महा-शिवरात्रि की शुभकामनाएं

नंदीगण नतमस्तक सम्मुख, नीलकंठ पर शोभित विषधर;
मूषक संग गजानन बैठे, कार्तिकेय संग मोर खड़े।।
सत्य ही शिव है, शिव ही सुंदर, सुंदरता चहुंओर भरे,
अंतरमन से तुझे पुकारूं हर हर हर महादेव हरे।।
महा-शिवरात्रि की शुभकामनाएं!


Mahashivratri






Wednesday, 11 February 2015

Seva


संत

जिस प्रकार से हम (संसार वाले) बाहरी चीज़ देखते हैं उसी प्रकार संत और भगवान आंतरिक चीजें ही देखते हैं ।

------ श्री महाराजजी ।
        राधे - राधे ।


भक्ति की आधारशिला

🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
    🍃🍃भक्ति की आधारशिला🍃🍃
🌺मन एक समय में एक ही काम कर सकता है।मन के संयोग के बिना कोई काम नही हो सकता।किसी भी काम को मन लगाकर तो करना चाहिए किन्तु अटैचमेंट भगवान् में ही रखना चाहिए।
🌺अपने आपको अपने शरण्य की धरोहर मानकर उनकी नित्य सेवा करने में ही अपना भूरिभाग्य मानो। सदा यही सोचो की मेरे जीवन का एक क्षण भी बिना सेवा के नष्ट ना हो।
🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
   🍃🍃श्री महाराज जी🍃🍃
🙏🙏राधे राधे राधे राधे🙏🙏

दिव्य ज्ञान

अध्याय 4 श्लोक 4

अर्जुन ने कहा – सूर्यदेव विवस्वान् आप से पहले हो चुके (ज्येष्ठ) हैं, तो फिर मैं कैसे समझूँ कि प्रारम्भ में भी आपने उन्हें इस विद्या का उपदेश दिया था |

अध्याय 4 : दिव्य ज्ञान

श्लोक 4 . 4

अर्जुन उवाच
अपरं भवतो जन्म परं विवस्वतः |
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति || ४ ||

अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा; अपरम् – अर्वाचीन, कनिष्ठ; भवतः – आपका; जन्म – जन्म; परम् – श्रेष्ठ (ज्येष्ठ); जन्म – जन्म; विवस्वतः – सूर्यदेव का; कथम्– कैसे; एतत् – यः; विजानीयाम् – मैं समझूँ; तवम् – तुमने; आदौ – प्रारम्भ में; प्रोक्तवान् – उपदेश दिया;इति – इस प्रकार | 

भावार्थ

अर्जुन ने कहा – सूर्यदेव विवस्वान् आप से पहले हो चुके (ज्येष्ठ) हैं, तो फिर मैं कैसे समझूँ कि प्रारम्भ में भी आपने उन्हें इस विद्या का उपदेश दिया था |

 तात्पर्य

जब अर्जुन भगवान् के माने हुए भक्त हैं तो फिर उन्हें कृष्ण के वचनों पर विश्र्वास क्यों नहीं हो रहा था ? तथ्य यह है कि अर्जुन यह जिज्ञासा अपने लिए नहीं कर रहा है, अपितु यह जिज्ञासा उन सबों के लिए है, जो भगवान् में विश्र्वास नहीं करते, अथवा उन असुरों के लिए है, जिन्हें यह विचार पसंद नहीं है कि कृष्ण को भगवान् माना जाय | उन्हीं के लिए अर्जुन यह बात इस तरह पूछ रहा है, मानो वह स्वयं भगवान् या कृष्ण से अवगत न हो | जैसा कि दसवें अध्याय में स्पष्ट हो जायेगा, अर्जुन भलीभाँति जानता था कि कृष्ण श्रीभगवान् हैं और वे प्रत्येक वस्तु के मूलस्त्रोत हैं तथा ब्रह्म की चरम सीमा हैं | निस्सन्देह, कृष्ण इस पृथ्वी पर देवकी के पुत्र रूप में भी अवतीर्ण हुए | सामान्य व्यक्ति के लिए यह समझ पाना अत्यन्त कठिन है कि कृष्ण किस प्रकार उसी शाश्र्वत आदिपुरुष श्रीभगवान् के रूप में बने रहे | अतः इस बात को स्पष्ट करने के लिए ही अर्जुन ने कृष्ण से यह प्रश्न पूछा, जिससे वे ही प्रामाणिक रूप में बताएँ | कृष्ण परम प्रमाण हैं, यह तथ्य आज ही नहीं अनन्तकाल से सारे विश्र्व द्वारा स्वीकार किया जाता रहा है | केवल असुर ही इसे अस्वीकार करते रहे हैं | जो भी हो, चूँकि कृष्ण सर्वस्वीकृत परम प्रमाण हैं, अतः अर्जुन उन्हीं से प्रश्न करता है, जिससे कृष्ण स्वयं बताएँ और असुर तथा उनके अनुयायी जिस भाँति अपने लिए तोड़-मरोड़ करके उन्हें प्रस्तुत करते रहे हैं, उससे बचा जा सके | यह प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है कि अपने कल्याण के लिए वह कृष्णविद्या को जाने | अतः जब कृष्ण स्वयं अपने विषय में बोल रहे हों तो यह सारे विश्र्व के लिए शुभ है | कृष्ण द्वारा की गई ऐसी व्याख्याएँ असुरों को भले ही विचित्र लगें, क्योंकि वे अपने ही दृष्टिकोण से कृष्ण का अध्ययन करते हैं, किन्तु जो भक्त हैं वे साक्षात् कृष्ण द्वारा उच्चरित वचनों का हृदय से स्वागत करते हैं | भक्तगण कृष्ण के ऐसे प्रामाणिक वचनों की सदा पूजा करेंगे, क्योंकि वे लोग उनके विषय में अधिकाधिक जानने के लिए उत्सुक रहते हैं | इस तरह नास्तिकगण जो कृष्ण को सामान्य व्यक्ति मानते हैं वे भी कृष्ण को अतिमानव, सच्चिदानन्द विग्रह, दिव्य, त्रिगुणातीत तथा दिक्काल के प्रभाव से परे समझ सकेंगे | अर्जुन की कोटि के श्रीकृष्ण-भक्त को कभी भी भगवान् के समक्ष ऐसा प्रश्न उपस्थित करने का उद्देश्य उन व्यक्तियों की नस्तिक्तावादी प्रवृत्ति को चुनौती देना था, जो कृष्ण को भौतिक प्रकृति के गुणों के अधीन एक समान्य व्यक्ति मानते हैं |

मथुरा ब्रज होली उत्सव तिथियां:

26 फ़रवरी 2015, गुरुवार: बरसाना लड्डू होली

27 फ़रवरी 2015, शुक्रवार: बरसाना  में लठामार होली

28 फरवरी 2015, शनिवार
नन्दगाव में लठामार होली

1 मार्च 2015, रविवार: कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा में लठमार होली

5 मार्च 2015, गुरुवार: होलिका दहन (होली फायर)

6 मार्च 2015, शुक्रवार:  को धूलेङी

7 मार्च 2015 दाऊजी, जाब और नन्दगाव का हुरंगा। एवं मुखराई का चरकुला

8 मार्च को बठैन और गिङोह का हुरंगा

क्षणभंगुर जीवन

जब भी आप लोगों को टाइम मिले तो उसका सदुपयोग करो,उसमे 'राधे' नाम का जाप करें। चाहे घर से ऑफिस तक क्यूँ न जाना हो,क्षण-क्षण का सदुपयोग करो, ऐसा नहीं आज संडे है आज तो हम मौज करेंगे, पिकनिक मनायेंगे, ऐसा नहीं, एक क्षण भी व्यर्थ न जानेदो, आज छुट्टी है तो साधना में लगाओ, अपना परमार्थ बनाओ । 

क्षणभंगुर जीवन की कलिका, 
कल प्रात को जाने खिली न खिली । 

अभ्यास करो, श्वास श्वास में राधे नाम का जप करो । क्या पता अगला क्षण मिले न मिले?

.............श्री महाराजजी।
🙏Radhey Radhey🙏

दिव्य ज्ञान

आज मेरे द्वारा वही यह प्राचीन योग यानी परमेश्र्वर के साथ अपने सम्बन्ध का विज्ञान, तुमसे कहा जा रहा है, क्योंकि तुम मेरे भक्त तथा मित्र हो, अतः तुम इस विज्ञान के दिव्य रहस्य को समझ सकते हो |

अध्याय 4 : दिव्य ज्ञान

श्लोक 4 . 3

स एवायं मया तेSद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः |
भक्तोSसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् || ३ ||

सः – वही; एव – निश्चय ही; मया – मेरे द्वारा; ते – तुमसे; अद्य – आज; योगः – योगविद्या; प्रोक्तः – कही गयी; पुरातनः – अत्यन्त प्राचीन; भक्तः – भक्त; असि– हो; मे – मेरे; सखा – मित्र; च – भी; इति – अतः;रहस्यम् – रहस्य; एतत् – यः; उत्तमम् – दिव्य |

भावार्थ

आज मेरे द्वारा वही यह प्राचीन योग यानी परमेश्र्वर के साथ अपने सम्बन्ध का विज्ञान, तुमसे कहा जा रहा है, क्योंकि तुम मेरे भक्त तथा मित्र हो, अतः तुम इस विज्ञान के दिव्य रहस्य को समझ सकते हो |

 तात्पर्य

मनुष्यों की दो श्रेणियाँ हैं – भक्त तथा असुर | भगवान् ने अर्जुन को इस विद्या का पात्र इसीलिए चुना क्योंकि वह उनका भक्त था | किन्तु असुर के लिए इस परम गुह्यविद्या को समझ पाना संभव नहीं है | इस परम ज्ञानग्रंथ के अनेक संस्करण उपलब्ध हैं | इनमें से कुछ भक्तों की टीकाएँ हैं और कुछ असुरों की | जो टीकाएँ भक्तों द्वारा की गई हैं वे वास्तविक हैं, किन्तु जो असुरों द्वारा की गई हैं वे व्यर्थ हैं | अर्जुन श्रीकृष्ण को भगवान् के रूप में मानता है, अतः जो गीता भाष्य अर्जुन के पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए किया गया है वह इस परमविद्या के पक्ष में वास्तविक सेवा है | किन्तु असुर भगवान् कृष्ण को उस रूप में नहीं मानते | वे कृष्ण के विषय में तरह-तरह की मनगढंत बातें करते हैं और वे कृष्ण के उपदेश-मार्ग से सामान्य जनता को गुमराह करते रहते हैं | ऐसे कुमार्गों से बचने के लिए यह एक चेतावनी है | मनुष्य को चाहिए कि अर्जुन की परम्परा का अनुसरण करे और श्रीमद्भगवद्गीता के इस परमविज्ञान से लाभान्वित हो |

कृपा सागर कृपालु

कृपा सागर कृपालु गुरुदेव तुम्हारी महिमा अपरम्पार है । तुम्हारे ऋण से हम करोड़ों कल्प में भी उऋण नहीं हो सकते । निरन्तर अपराध किये जाने पर भी तुम अपनी असीम करुणा के कारण हम पामर जीवों को गले लगाते हो । तुम्हारे द्वार पर कोई भी आ जाय सदाचारी हो या दुराचारी, तुम्हारा प्रशंसक हो अथवा निन्दक, पापी हो या भक्त, निर्धन हो या धनवान, विद्वान हो या अपढ़ गँवार, तुम उसे अपने प्रेम पाश में बाँधकर उसकी आध्यात्मिक गरीबी दूर करके उसे वह धन प्रदान करते हो कि वह सदा सदा के लिए मालामाल हो जाता है ।


संसार में तो केवल व्यवहार करना है

अपने व्यवहार को संसार के अनुकूल बनाओ। इसमें बहुत लोग भूल किया करते हैं। कहते हैं अजी...... हमसे किसी कि खुशामद नहीं होती किसी की गुलामी नहीं होती।
यह गुलामी और खुशामद दो प्रकार कि होती हैं - एक एक्टिंग में और एक फैक्ट में। हम फैक्ट में नहीं कर रहें हैं कि किसी के आगे झुक जाओ।
फैक्ट में तो केवल हरि हरिजन के आगे ही झुकना है। संसार में तो केवल व्यवहार करना है।
{ कम बोलो , मीठा बोलो। अपने व्यवहार को मधुर बनाओ। }

-------जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाप्रभु

Roopdhyan

रूपध्यान करते हुए प्रिया प्रियतम के साथ जिस लीला में जाना चाहो, चले जाओ तथा उनके दिव्य मिलन व दर्शन के लिये अत्यंत तड़पन पैदा करो । लाख आँसू बहाओ, लेकिन किसी भी आँसू को तब तक सच्चा न मानो, जब तक स्वयं श्यामसुंदर आकर उसे अपने पीताम्बर से न पोंछ लें । इतनी व्याकुलता पैदा करो कि नेत्र और प्राणों में बाजी लग जाये । एक-एक पल युग के समान लगने लगे । लेकिन यदि प्राणवल्लभ न आयें तो निराशा न आने पाये, प्रेमास्पद में दोष बुद्धि न आने पाये ।
---- श्री महाराजजी ।
🙏Radhey Radhey🙏