Answer given by Shri Maharajji's Pracharak to a
devotees query:- Many a times I face a complex situation when people say that these Gurus or Babas preach the world that
everything in this world is
Maya; so one should leave everything or perhaps donate to them but they themselves relish all the worldly pleasures, they(spiritual
gurus) wear expensive diamond rings, costly
watches etc. I just don't
know how to satisfy such people by giving them a suitable reply. Please enlighten me.
वैसे तो यह विषय अत्यन्त ही गूढ़ है।
इसको संक्षिप्त में समझाना और समझना बहुत मुश्किल है। इसके लिए philosophy का base strong करना अत्यंत ज़रूरी है। तभी इसे समझने की कोशिश की जा सकती है। इसके लिए तुम्हे 'प्रेम रस सिद्धांत' पढ़नी चाहिए और श्री महाराज
जी द्वारा महापुरुष के विषय पर दी
गई speeches सुननी चाहिए। लेकिन फ़िर भी सारांश में ये समझ लेना चाहिए - वास्तविक गुरु यानि महापुरुष तो माया से परे होते हैं। फ़िर उनका मायिक वस्तुओं का भोग करने
का तो सवाल ही नहीं उठता। बाहरी रूप से उनको देखने पर ऐसा ज़रूर लगता है कि वे सांसारिक विषयों का भोग कर रहे हैं, लेकिन हमें यह समझे रहना चाहिए कि महापुरुषों की इनमें attachment नहीं होती। वे तो सदा सर्वत्र अपने इष्टदेव को realise और feel करते है। जैसे - एक
रसगुल्ला है.....उसे यदि कोई
मायाबद्ध व्यक्ति खाए तो वो उसके रस का, उसके मिठास का आनंद लेगा, लेकिन वही रसगुल्ला अगर कोई महापुरुष खाए तो acting
तो वो हमारी जैसी करेगा, हम
देखें तो कहेंगे - "देखो देखो, ये
बाबाजी रसगुल्ले में कितना आनंद ले रहे हैं" - लेकिन वास्तव में वो महापुरुष
रसगुल्ला खाते समय ये सोच के विभोर होता है कि इस रसगुल्ले को मेरे प्रभु ने अपने अधरों से लगाया है, उनके
अधरों का रस इसमें मिल गया है। तो इस तरह बाहरी रूप से संसारी वस्तुयों के भोग की acting करते हुए भी
महापुरुष अन्दर से सदा सर्वत्र अपने इष्टदेव के आनंद में ही मग्न रहता
है। जहाँ तक बात है ये कहने की कि ये संत लोग हमसे माया कह कह कर सांसारिक वस्तुएं ले लेते हैं तो फ़िर इसका जवाब तो तुम्हारे प्रश्न में ही है कि वे उसे माया कहकर हमसे ले लेते हैं। तो बेटा जीव का तो लक्ष्य ही तो है माया निवृति, अगर कोई संत हमसे उसी माया के सामानों को ले लेता है, दान में, तो इसमें तो उसकी कृपा माननी चाहिए। ये सब शास्त्र वेद कहते हैं कि संत और महापुरुष जिसपर कृपा करते हैं उसका संसार छीन लेते हैं।भगवान ने भागवत में ख़ुद कहा है - "यस्याहमनुगृह्णामि हरिष्ये तद्धनं शनैः" (भा. ८-२२-२४) मैं जिसपर कृपा करता हूँ उसका संसार छीन लेता हूँ। लेकिन हमारा ज्ञान इसका उल्टा। वो जिसपर कृपा करते हैं उसको अरबपति बना देते हैं, बेटा नहीं है बेटा दे देते हैं, इत्यादि। तो संसार दे दें, ये भगवत कृपा, संत कृपा, ये हमारा ज्ञान। और भगवान और संतों का वाक्य इसका उल्टा। यही कारण है कि हम दान के रहस्य को समझ ही नहीं पाते। हमारी इन
वस्तुओं में इतनी आसक्ति है
कि हमें संत भी विषयी नज़र आते हैं।
हमारा अंतःकरण इतना गन्दा है कि हमें लगता है कि उनका भी इन सबमें attachment है।और हम तुंरत बुद्धि लगा लेतेvहैं। अनुराग या वैराग्य तो मन से होता है। बाहर से देखकर judge करना तो पागलपन है।इस विषय में एक प्रसंग है - श्री चैतन्य
महाप्रभु एक बार पुण्डरीक
विद्यानिधि से मिलने गए। वो परम वैष्णव थे लेकिन उनका ऐश्वर्या राजाओं से बड़ा था - सोने के पलंग, अनेको दासियाँ, इत्यादि। महाप्रभुजी उनसे मिलेvऔर चिपटा के रोने लगे। तो गदाधर पंडित ने सोचा - "ये व्यक्ति इतना विषयी है, राजाओं के समान ऐश्वर्य है इसका और महाप्रभुजी इसको गले से लगा रहे हैं।" उसका दिमाग चकरा गया। बाद में महाप्रभुजी ने
बुला के पूछा "ऐ! क्या हुआ?" "महाराज सर फट रहा है! आप पुण्डरीक विद्यानिधि जैसे विषयी से स्वयं मिलने गए, उसे गले से लगाया?" तो महाप्रभु जी ने डांटा "मूर्ख! इतने दिन हो गए, अभी तक तूने यही नही समझा कि वैराग्य शरीर से करना है या मन से, क्या तूने उसके मन में झाँक के देखा है?vअन्तर्यामी है तू?" चरणों में
गिर गए गदाधर पंडित। लेकिन महाप्रभु जी ने उन्हें सत्संग से निकाल दिया, और कहा कि "पुण्डरीक विद्यानिधि से
माफ़ी मांगो, अगर उन्होंने क्षमा कर
दिया तो ही मैं वापस लूँगा सत्संग में तुम्हे"। इस लिए महापुरुषों के बाहरी रूप को देख कर कभी ऐसे प्रश्न नहीं करने चाहिए। वे कब, क्या और क्यों करते हैं -
इसको समझने लायक हमारी बुद्धि
नहीं है।हमें तो बस उनके हर व्यवहार
को कृपा मानना चाहिए। क्योंकि उनका तो स्वभाव ही होता है केवल कृपा करने का।उन्हें स्वयं कुछ प्राप्त करना
शेष नहीं रह गया है। वे तो "कृतकृत्य" हो चुके हैं, यानी जो करना था करके
मायानिवृत्त हो चुके हैं, आनंदप्राप्ति कर चुके हैं। बुद्धि का अहंकार है तो संसार में लगाओ ये दो अंगुल की खोपड़ी......कि कैसे सब यहाँ एक दूसरे को अपना कह के,अपना मान के धोखा दे रहे हैं,धोखा खा रहे हैं.....सब एक दूसरे से स्वार्थ वश
जुड़े हैं,जो पति-पत्नी एक दूजे के लिए जान देने की कसमें खाते हैं,वो अंदर ही अंदर कितनी बार एक दूजे की जान ले चुके होते हैं.........सोचिए.....अकेले में......अपनी असलियत आप
सबको पता है.......realize कीजिये.......यानि कहने
का आशय है कि बुद्धि का प्रयोग संसार में करो,भगवत क्षेत्र में तुम्हारी ये मायिक बुद्धि काम नहीं देगी।
अपने व्यवहार को संसार के अनुकूल बनाओ। इसमें बहुत लोग भूल किया करते हैं। कहते हैं अजी हमसे किसी कि खुशामद नहीं होती किसी कि गुलामी नहीं होती। यह गुलामी और खुशामद दो प्रकार कि होती हैं - एक एक्टिंग में और एक फैक्ट में। हम फैक्ट में नहीं कर रहें हैं कि किसी के आगे झुक जाओ। फैक्ट में तो केवल हरि हरिजन के आगे ही झुकना है। संसार में तो केवल व्यवहार करना है।
-------जगद्गुरुश्री कृपालु जी महाप्रभु।
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