Tuesday, 17 February 2015

सुख दुख नहिं संसार

सुनो मन ! सुख दुख नहिं संसार|सुख वादी कर प्यार जगत सों, दुखवादी कर खार |जो सुख होत जगत तो कोउ तो, पावत करिय विचार |जो दुख होत रहत कत संतन, सदा सुखी इकसार |जोइ असीम सोइ सुख जोइ सीमित, सोइ दुख यह उर धार |कह ‘कृपालु’ मन सुन सुख पर कहुँ, होत न दुख अधिकार ||

भावार्थ – अरे मन ! सुन, संसारमें सुख एवं दु:ख दोनों ही नहीं है | संसार में सुख मानने वाले संसार से ही प्यार करते हैं क्योंकि सुख प्राप्ति जीव का स्वाभाविक स्वभाव है |

 और इसी कारण संसार में दु:ख मानने वालों को संसार से शत्रुता हो जातीहै, क्योंकि वह आत्मा के स्वभाव के विपरीत है | अर्थात् कोई भी जीवात्मा दु:ख से प्यार नहीं करती | 

अरे मन ! यदि संसार में कहीं सुख होता तो कभी तो किसी को तो प्राप्त हुआ होता ? इसी प्रकार संसार में दु:ख होता तो परमानन्द प्राप्त संतों को भी कहीं तो कभी तो दु:ख मिलता ? अतएव संसार में न सुखहै न दु:ख है | 

इसके अतिरिक्तएक बात यह भी है कि जो अनन्त मात्रा का होता है वही सुख है | संसार का सुख सीमित है; अतएव वह सुख हो ही नहीं सकता| 

’श्री कृपालु जी’ कहते हैं, अरे मन ! एक बात और है, वह यह कि सुख के ऊपर दु:ख का अधिकारकथमपि नहीं हो सकता | इसलियेसिद्ध हुआ कि संसार में सुख तथा दु:ख दोनों ही नहीं है |

( प्रेम रस मदिरा सिद्धान्त -माधुरी )

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