Wednesday 18 February 2015

रूपध्यान


रूपध्यान 

ध्यान करो तुम्हारे सामने श्यामा- श्याम खड़े हैं । समस्त श्रृंगारों से युक्त, मुस्करा रहे हैं, तुम्हारी ही ओर देख रहे हैं, फिर ध्यान करो वे श्यामसुन्दर तुम्हारे आलिंगन के लिए हाथ उठा रहे हैं । फिर ध्यान करो वे कुछ कह रहे हैं । क्या. .... सुनाई नहीं पड़ता, क्योंकि तुम्हारे कान प्राकृत हैं । अच्छा रोकर, उनसे दिव्य शक्ति माँगो ताकि वे शब्द सुनाई पड़े । अच्छा तो हम बताते हैं - वे कह रहे हैं तू केवल मुझे ही अपना सर्वस्व क्यों नहीं मान लेता । सुना- विश्वास करो ।
पुनः ध्यान करो वे तुम्हें इस शरीर से निकाल कर दिव्य शरीर देकर अपने गोलोक ले जा रहे हैं 

अब देखो गोलोक, यहाँ सब कुछ स्वयं श्रीकृष्ण ही बने हैं । सब जड़ - चेतन स्वयं श्याम सुन्दर ही बने हैं । सूँघो, दिव्य सुगन्ध । देखो, दिव्य रूप!

अब देखो! उनके परिकर तुम्हारे स्वागत के लिए आये हैं । तुम्हें अपनी मंडली में सखा लोग एवं सखी लोग घसीटे लिए जाते हैं । वे कहते हैं यह हमारे मंडल का है । तुम भी तो हो कुछ कहो, लेकिन तुम तो विभोर हो । क्या कहोगे? अच्छा, खुशी के मारे नाचो ।

आँख खोलकर ध्यान करो । आपके सामने किसी स्थान पर वे खड़े हैं । अब वहाँ से दूसरी जगह पर आ रहे हैं फिर तुम्हारी ओर आ रहे हैं । 

फिर ध्यान करो वे तुम्हारे हृदय में चले गये किन्तु तुम देखना चाहते हो । हाय प्रियतम!  बाहर आ जाओ न। अब बालवत् रोओ ।

फिर ध्यान करो- वे बाहर आ गये । किन्तु वे तुम्हारा स्पर्श नहीं करते, कहते हैं तुम्हारे हृदय में अभी और भी कामनायें हैं । अतएव तुम अशुद्ध हो । अच्छा, रोकर अभी सब कामनायें निकाल दो और कहो- अच्छा, प्राण- धन लो, अब तुम्हीं तुम हो । बस वे आ गये पास, बिल्कुल पास, विभोर हो जाओ ।

उपरोक्त प्रकार से ध्यान करो ।
प्रत्येक क्षण काम में लो । मन को खाली न रहने दो । ऐसा कुछ दिन करने पर ज्ञात हो जायेगा कि तुम कहाँ हो

रूपध्यान करते समय गुरु या भगवान की जिस लीला में जाना चाहो, चले जाओ तथा उनके दिव्य मिलन व दर्शन के लिए तडपन पैदा करो । लाख- लाख आँसू बहाओ लेकिन किसी भी आँसू को तब तक सच्चा न मानो, जब तक स्वयं श्यामसुन्दर आकर अपने पीताम्बर से आँसुओं को न पोंछें । इतनी व्याकुलता पैदा करो कि नेत्र और प्राणों में बाजी लग जाये, पल- पल युग के समान लगे ।

महत्वपूर्ण साधना रूपध्यान सहित है । हरि और गुरु का रूप बना कर, उनको चैतन्य, साक्षात प्रेमास्पद मान कर कितनी देर और कितना अपने साथ अनुभव करते हो । यही सच्ची साधना है । मूर्ति अथवा फोटो का उपयोग आप कर सकते हैं लेकिन उसमें से उन्हें निकाल कर, भावना द्वारा उनका चैतन्य रूप बनाकर उपासना करनी होगी । तब उस दिव्य पर्सनैलिटी का स्वरूपानन्द तुम्हें प्राप्त हो सकेगा । उनके अकारण करूण और दयालु स्वभाव का सदा ध्यान रहे । मिलन और विरह का रूपध्यान बनाते रहो तथा सदा निष्काम रहो ।

श्री महाराज जी. ..!!!

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