सखी ! मोहिं, डसि गयो श्याम – भुजंग |
कालि आलि ! कालिंदी तट हौं, देखत रही तरंग |
कोटि अनंग अंग – प्रति वारत, आयो ललित – त्रिभंग |
हाय ! हाय ! कहि गिर् यो धरणि पर, नहिं जानी छल – ढंग |
हौं ढिग गई लखी तब वाने, लंपट सोँ प्रति – अंग |
कर परस्यो कहि ‘प्यारी’ हौं हूँ, ‘प्यारे’ कहि इक संग |
अब ‘कृपालु’ तनु विष बगरावति, सोइ धुनि श्यामल – रंग ||
भावार्थ – ( एक जीवात्मा का परमात्मा से प्रथम मिलन एवं उसका अन्तरंग सखी से व्यक्त करना ) –
अरी सखी ! मुझे श्यामसुन्दर – रूपी काले सर्प ने डस लिया | मैं कल यमुना के किनारे खड़ी होकर यमुना की तरंगें देख रही थी, अचानक ही अनन्त कोटि – कन्दर्प – लावण्य युक्त तीन स्थानों से टेढ़ा वह नटखट वहीं आ गया, एवं ‘हाय ! हाय !’ करके सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ा | मैं उसके छल – अभिनय को न समझ सकी | तुरन्त ही दौड़कर वहाँ गई एवं अत्यन्त सहानुभूति की दृष्टि से देखने लगी | किन्तु उसने मेरे शरीर के प्रमुख अंगों पर लम्पट पुरुष की भाँति दृष्टिपात किया | मैंने प्रेमरस विभोर होकर अचेतनावस्था में उसके हाथ का स्पर्श करते हुए ‘प्यारे !’ ऐसा कहा | उसी समय मेरे साथ ही उसने भी मेरे हाथ का स्पर्श करते हुए, ‘प्यारी’ ऐसा कहा | ‘श्री कृपालु जी’ के शब्दों में सखी कहती है कि अब श्यामसुन्दर की वही ‘प्यारी’ ध्वनि सम्पूर्ण शरीर में विष फैला रही है |
( प्रेम रस मदिरा मिलन – माधुरी )
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