समर्थ रामदास का अम्बादास नामक एक शिष्य था । उसकी भक्ति और सेवाभाव से रामदास उस पर प्रसन्न थे, किन्तु दूसरे शिष्यों को यह बात खलती थी । एक दिन मध्याह्न समय समर्थ ने उसे बुलाकर कहा, "जाओ, सामने के बिल्ववृक्ष की शाखा पर बैठकर उस शाखा को आरी से काट लाओ।" शिष्यों ने सुना, तो उन्हें यह आदेश जरा विचित्र मालूम हुआ, क्योंकि वैसा करने से अम्बादास नीचे के कुएँ में जा गिरता । उन्होंने उसे सलाह दी कि वह दूसरी शाखा पर बैठकर उस शाखा को काट लाए । किन्तु अम्बादास बोला, "मैं तो गुरुदेव की आज्ञा का पालन करूँगा।" और हुआ भी वैसा ही । ज्योंही शाखा कटने को आयी कि वह धड़ाम से कुएँ में जा गिरा । कुएँ में गिरते ही अम्बादास ने आँखें बन्द कर लीं और वह गुरुदेव का स्मरण करने लगा । थोड़ी देर बाद जब उसने आँखें खोलीं, तो उसे जल तो कहीं नहीं दिखाई दिया, बल्कि साक्षात् रघुवंश शिरोमणि श्रीरामचंद्रजी को प्रसन्न मुद्रा में सामने खड़े पाया । उनके दर्शन से वह गदगद हो गया और उसकी आँखें अश्रुविह्वल हो गयीं । भक्तिभाव से उसने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया ही था कि ऊपर से आवाज सुनाई दी, "अम्बादास कैसे हो? " बात यह थी कि अम्बादास के गिरने की आवाज सुन शिष्यगण गुरुदेव को लेकर वहाँ पहुँच गये थे और गुरुजी ने आवाज लगायी थी ।
गुरुदेव की आवाज सुनते ही अम्बादास उठने लगा, लेकिन प्रभु अंतर्धान हो गये थे । उसने वहीं से उत्तर दिया, और वह ऊपर निकल आया । गुरुदेव उससे बोले, "सचमुच तू आज्ञाकारी शिष्य है । गुरुआज्ञा पालन बस उनकी इच्छा में इच्छा यही भगवत्प्राप्ति का रहस्य है
मालिक तेरी रजा रहे, और तू ही तू रहे ।
बाकी न 'मैं' रहूँ न मेरी आरजू रहे ।।
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