Thursday, 30 April 2015

तुम जीवन - जीवन जीवनधन


तुम जीवन - जीवन जीवनधन |
तिन जीवन जीवन बस जीवन, जिन जीवन, किय जीवन अरपन |
जिन किय निज कहँ अरपन तिन कहँ, अरपन कर निज कहँ यह तव पन |
तिन दिय भार डारि तोहिं शिशु जनु, तुम सँभार जननी जनु छन छन |
तिनके अवगुन गिनत न अगनित, अगनित करि तिन कहँ इक गुन गन |
कह ‘कृपालु’ पुनि ते जिन जन जन, तिन मानत निज जन महँ प्रिय – जन ||

भावार्थ - हे जीवनधन श्यामसुन्दर ! तुम समस्त जीवात्माओं की आत्मा हो | उन्हीं जीवों का जीवन धन्य है जिन जीवों ने अपना जीवन तुम्हें समर्पित कर दिया है | जो जीव अपने जीवन को तुम्हें समर्पित कर देते हैं उन्हें तुम भी अपने आप को समर्पित कर देते हो, यह तुम्हारा प्रण है | अपने को समर्पित किये हुये जीव नवजात शिशु की भाँति निश्चिन्त हो जाते हैं और तुम माता की तरह क्षण - क्षण में उनके योगक्षेम को वहन करते हो | उन शरणागत जीवों के अगणित अवगुणों को एक भी नहीं मानते एवं उनके एक गुण को अगणित करके मानते हो | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि फिर उन शरणागत जीवों के भी जो शरणागत हो जाते हैं उन्हें तुम अपने प्रियजनों में सर्वाधिक प्रियजन मानते हो |

( प्रेम रस मदिरा मिलन – माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज

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