Sunday, 5 April 2015

Virah


वियोगिनि, अँसुवन हार पिरोय|करि करि सुरति श्यामसुंदर की, विरहिनि छिन – छिन रोय |गहवर – वन, वृंदावन, निधिवन, निरखि दुसह दुख होय |सेवा – कुंज सरस रति – रस की, सुरति बिसूरति सोय |घर – आँगन प्रिय – परिजन भूषन, वसन न भावत कोय |धनि ‘कृपालु’ तिय तदपि कहति पिय, करिय भाय जो तोय ||

भावार्थ – एक विरहिणी दोनों आँखों से लेकर वक्ष:स्थल के बीच तक निरन्तर आँसुओं की माला गूँथ रही है | 

श्यामसुन्दर की याद करके क्षण – क्षण में बार – बार रोती है | 

गह्वर वन, वृन्दावन एवं निधिवन को देखकर असह्य दु:ख होता है | सेवा – कुंज के रास – रस की बार – बार याद आती है | 

घर के भीतर एवं बाहर तथा प्रिय – परिजन एवं आभूषण वस्त्रादि कुछ भी नहीं अच्छा लगता |

 ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि विरहिणी को धन्य है जो इतनी असह्य वेदना के पीने पर भी प्रियतम से रुष्ट नहीं होती वरन् यह कहती है “प्रियतम जिस प्रकार सुखी रहें, वही करें |” 

( प्रेम रस मदिरा विरह - माधुरी ) 

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज

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